कर्नाटक की हार भाजपा के लिए सबक

आलेख

  • मनोज कुमार श्रीवास्तव

  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कई कारणों से वर्तमान समय में उसका आत्मविश्वास कमजोर पड़ता दिख रहा था।लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से उसका आत्मविश्वास बढ़ गया है।वहां की जनता कांग्रेस को बहुमत देकर एक तरह से भाजपा को सबक सिखाने की कोशिश की है।उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में भारी जीत पर भाजपा नेता  भले हैं खुशी मना रहे हैं जबकि कर्नाटक की हर कहीं न कहीं उनके लिए खतरे की घण्टी बजा दी है। दक्षिण के इस राज्य में सत्ता गंवाने के बाद पार्टी को चिन्तन करना चाहिए।

       कर्नाटक चुनाव में भाजपा के कई मंत्रियों को भी हार का मुंह देखना पड़ा है।यह संकेत है कि अब लोग काम पर विश्वास करने लगे हैं बात पर नहीं।देखा जाये तो यह समीक्षा केवल कर्नाटक में ही नही बल्कि देश के समस्त राज्यों में किसी भी स्तर के चुनावके लिए करनी पड़ेगी।उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों की बात की जाए तो भाजपा के लगभग सभी नेतागण एक -दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं लेकिन सच्चाई यही है कि कुछ स्थानों को छोड़कर सभी जगहों पर भाजपा की जीत अपेक्षाकृत कम वोटों से हुई है।

      कोई यह सोचे कि कर्नाटक की हार के बाद भाजपा कमजोर हो गई है यह गलत होगा।उसके मत प्रतिशत कमोबेश उतने हैं है।जितने 2018 के चुनाव में थे।इस बार उसे 36% मत प्राप्त हुए हैं जबकि पिछले चुनाव में उसका मत प्रतिशत 36.21%था।साल 2018 के मुकाबले भाजपा को महज 0.2%मतों का नुकसान हुआ पर उसकी इस मामूली नुकसान ने भी उसकी हाथ से सत्ता छीन ली।

       हर चुनाव में भाजपा मोदी के नाम का सहारा लेने लगती है।भाजपा को यह समझना चाहिए कि केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भगवान के सहारे वह हमेशा जीत नहीं सकती।जमीनी स्तर पर स्थानीय जन-प्रतिनिधियों को भी समाज और कार्यकर्ताओं के लिए कुछ करना होगा।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बजरंगबली के नाम के अलावे अगर पार्टी अपने जन-प्रतिनिधियों के कामकाज की समीक्षा कर लेती तो सम्भवतः ऐसी परिस्थिति पैदा ही नहीं होती।

        भाजपा नेतृत्व द्वारा सामान्य कार्यकर्ताओं की अनदेखी भी कहीं न कहीं नुकसान की वजह बनी है।   यह समय भाजपा के लिए खुशी मनाने का नहीं बल्कि मंथन करने का है।स्थानीय जन-प्रतिनिधियों पर जनता का अविश्वास कर्नाटक और उत्तर प्रदेश के अधिकतम स्थानों पर देखा गया है।कर्नाटक में कांग्रेस का उदय जेडीएस के पतन के साथ जुड़ा है न कि भाजपा के पतन के साथ।भाजपा की यही ताकत उसे लोकसभा चुनावों में फायदा दिलाएगी।

     कांग्रेस का मत-प्रतिशत बढ़ने का कारण आखिर क्या है।तो साफ जाहिर होता है कि उसने जद(एस) के वोट काटे।जद(एस) के मत- प्रतिशत में करीब 5 %की कमी आई है।लेकिन सीटों के हिसाब से कांग्रेस ने अपना कद बाकी दोनों पार्टियों से ऊंचा उठा लिया है।उत्तर भारत की राजनीति में जब तक क्षेत्रीय पार्टियां बनि रहेगी तबतक भाजपा बनी रहेगी।यहां कांग्रेस के परंपरागत वोट समाजवादी पार्टी,बहुजन समाज पार्टी,राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यू) जैसी पार्टियों के पास चले गये हैं।वहीं भाजपा ने कांग्रेस की सवर्ण जातियों और राजद ,सपा, बसपा,जेडीयू के अतिपिछड़ा वोट पर स्वयं को केंद्रित किया है।

      यदि बिहार और उत्तर प्रदेश में मुसलमान एक बार फिर कांग्रेस की तरफ लौटते हैं तो कांग्रेस के पारंपरिक दलित और सवर्ण वोट भी उसकी तरफ लौट सकते हैं।क्योंकि भाजपा को वोट देकर वे खुश नहीं है।यही भाजपा के लिए चुनौती है।उसे इस समीकरण पर गौर करना होगा।उधर कांग्रेस की भी जिम्मेदारी है कि वह अपना राष्ट्रीय समावेशी चरित्र विकसित करे।वह जब तक मजबूत नहीं होगी तबतक भाजपा बनी रहेगी।भाजपा चाहे तो कांग्रेस की इस रणनीति का काट निकाल सकती है।

      आगामी लोकसभा चुनावों से पहले समीक्षा कर भाजपा नेतृत्व को अपनी कमियों से पार पाना होगा।यह कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जनता का विश्वास है लेकिन हरेक चुनाव मोदी के सहारे जितना सम्भव नहीं है।यदि किसी तरह कर्नाटक में भाजपा सरकार बनाने में सफल ही जाती तो उसका

 गुमान बहुत बढ़ जाता इसलिए जनता कांग्रेस को जिताकर भाजपा को सबक सिखाने का प्रयास किया है।

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