*महापंडित लंकाधीश रावण रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना के समय पुरोहित कैसे बने
*बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की ‘इरामावतारम्’ मे यह कथा है।*
*रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव था..।*
*जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..। जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्हें राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है।*
*रावण ने सविनय कहा– आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।*
*जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है। मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।*
*प्रणाम प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया कि क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?*
*बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है. जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे?*
*लेकिन हाँ। यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी राम ने इतना बड़े आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी हैं भी अथवा नहीं।*
*जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं। यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ?*
*जामवंत खुलकर हँसे।*
*मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता।*
*ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहे हैं। जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी स धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं। उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा। इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें।*
*उपस्थित दानवगण भयभीत हो गए। लंकेश तक काँप उठे। पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते। अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो। जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते। उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं।*
*रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।*
*जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए।*
*अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है। यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य। यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया। स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया।*
*सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे ।* *आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उन्होंने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवास