• बिहार की सियासत आरक्षण के मामले पर गरमायी
• अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण SC श्रेणियों के भीतर अधिक पिछड़ों के लिए अलग से कोटा प्रदान करना स्वीकार्य
• नीतीश कुमार ने दलितों में कोटा में कोटा बनाया
• अलग-अलग राज्यों की जातिगत स्थिति में अंतर
• राजद ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जतायी असहमति
सामाजिक न्याय के अलग-अलग मुद्दों के साथ ही बिहार में जातीय जनगणना और आरक्षण का मामला हमेशा सुर्खियों में रहता है। इस पर राजनीति भी जमकर हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कोटा के अंदर कोटा को मंजूरी दे दी है तो बिहार में भी इसको लेकर गहमागहमी है और इस पर प्रतिक्रियाएं आनीं शुरू हो गई हैं।
बिहार में सियासी हलचल के बीच राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी आने लगी है। खासकर जदयू की प्रतिक्रिया पर नजर टिकी हुई थी क्योंकि नीतीश सरकार भी 2007 में एक बड़ा फैसला करते हुए दलित से महादलित बना ऐसा कर चुकी है, जिसे लेकर तब खूब राजनीति हुई थी। अब सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले पर जदयू नेता सह मंत्री अशोक चौधरी ने कि मैंने अभी पूरा फैसला नहीं देखा है, लेकिन जितनी जानकारी मुझे मिली है उसके मुताबिक फैसले पर कई सवाल खड़े हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर राजद के प्रवक्ता शक्ति यादव भी असहमति जताते हुए कहते हैं कि जो फैसला आया है, उससे बहुत हद तक सहमत नहीं हैं, क्योंकि संविधान सभा के बैठक के अनुसार ये नहीं है। पूना पैक्ट 1932 के अनुरूप भी नहीं है। जब तक इस देश में जातिगत आधारित गणना नहीं हो जाती है, कौन सी जाति कितनी है, ये जानकारी नहीं आ जाती है उसकी आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक हालात कैसे है। ऐसे में इस फैसले से कैसे सहमत हुआ जा सकता है। नीतीश सरकार ने दस साल पहले एक बड़ा फैसला करते हुए दलित से महादलित बना ऐसा कर चुकी है जिसे लेकर तब खूब राजनीति हुई थी।
वर्ष 2007 में बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने दलितों में भी सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियों के लिए ‘महादलित’ कैटेगरी बनाई थी. इनके लिए सरकारी योजनाएं लाई गईं। इसके बाद वर्ष 2010 में आवास, पढ़ाई के लिए लोन, स्कूली पोशाक देने की योजनाएं लाई गईं। बिहार में सभी दलित जातियों को महादलित की कैटेगरी में डाला जा चुका है। साल 2018 में पासवानों को भी महादलित का दर्जा दे दिया गया है।