- रिजवानुल हक
मानवता, न्याय और समानता के आदर्शों पर आधारित “संगतराश” एक प्रेरणादायक रचना है, जो शमीम अहमद के 25 वर्षों के अद्वितीय संघर्ष और उनके असाधारण योगदान को दस्तावेज करती है। यह पुस्तक केवल उनके व्यक्तिगत जीवन और कार्यों का वर्णन मात्र नहीं है. बल्कि यह सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उनके योगदान का एक गहन अध्ययन है। लेखक नूरुल्लाह जावेद ने आयंत गहराई और साहित्यिक संवेदनशीलता के साथ इस पुस्तक को आकार दिया है, जो न केवल उनके व्यक्तित्व का परिचय कराती है, बल्कि पाठकों को सामाजिक न्याय के प्रति एक नई दृष्टि प्रदान करती है।
शमीम अहमद एक प्रेरणास्त्रोत
शमीम अहमद, जो बिहार के चंपारण जिले के एक साधारण परिवार से संबंध रखते हैं, अपने जीवन को मानव अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए समर्पित करने वाले ऐसे व्यक्तित्व है, जिन्होंने समाज के उपेक्षित और पीडित वर्गों को आवाज देने का काम किया। उनके जीवन की प्रेरणा उनके पारिवारिक माहौल और अपने पिता की श्रमिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी से प्राप्त हुई। उनके संघर्ष का दायरा केवल सामाजिक अन्याय तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने भाषा, धर्म और सांस्कृतिक विविधता के मुद्दों को भी अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
श्रमीम अहमद की प्रेरणादायक यात्रा को “संगतराश” नाम देना स्वयं में ही प्रतीकात्मक है। जैसे एक संगतराश पत्थरों को तराशकर एक सुंदर मूर्ति का निर्माण करता है, वैसे ही शमीम अहमद ने अपने जीवन में चुनौतियों और संघर्षों को तराशकर समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने कठिनाइयों को अपने पथ की बाधा नहीं, बल्कि उसे प्रेरणा का स्रोत माना।
पुस्तक की विषयपस्तु और उद्देश्य
“संगतराश” का उद्देश्य केवल एक व्यक्ति के संघर्ष को उजागर करना नहीं है, बल्कि यह समाज के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल भी करता है। यह पुस्तक सामाजिक अन्याय, भाषाई विविधता, और सांस्कृतिक समरसता जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर केंद्रित है। लेखक ने बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ उन परिस्थितियों का चित्रण किया है, जिन्होंने अमीम अहमद को एक नेता और एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में दाला।
इस पुस्तक में उर्दू भाषा के प्रति उनके अडिग समर्पण और बंगाल में उर्दू आंदोलन के उनके नेतृत्व पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। लेखक ने बताया है कि किस प्रकार उर्दू आंदोलन ने न केवल भाषाई अधिकारों के लिए, बल्कि सामाजिक समानता और सांस्कृतिक पहचान के लिए भी एक व्यापक आंदोलन का रूप लिया। यह आंदोलन केवल एक भाषा के संरक्षण तक सीमित नहीं था, बल्कि यह उस समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारी का प्रतीक था, जो उनकी मातृभाषा और सांस्कृतिक धरोहर के साथ जुड़ा हुआ था।
मान्य अधिकारों के लिए संघर्ष
शमीम अहमद का मानव अधिकारों के प्रति समर्पण अद्वितीय है। उन्होंने अपने जीवन के 25 वर्षों को न्याय और समानता के लिए संघर्ष करने में व्यतीत किया। “संगतराश” में उनके द्वारा किए गए प्रमुख कायों और अभियानों को विस्तार से वर्णित किया गया है। असम फायरिंग, मुर्शिदाबाद की आगजनी और विभिन्न सामाजिक अन्यायों के खिलाफ उनकी लड़ाई इस बात का प्रमाण है कि वे केवल विचारों तक सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने अपने सिद्धांतों को व्यवहार में उतारकर समाज में वास्तविक बदलाव लाने का प्रयास किया।
“खाना सबके लिए अभियान
पुस्तक में उनके ड्रीम प्रोजेक्ट “खाना सबके लिए अभियान का भी उल्लेख किया गया है। यह अभियान न केवल भूखमरी के खिलाफ एक आंदोलन था, बल्कि यह समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति और समर्पण को भी दर्शाता है। उनके प्रयासों के कारण समाज में एक नई जागरूकता पैदा हुई और कई लोग इस अभियान से जुड़े।
बंगाल में उर्दू आंदोलन
“संगतराश के एक प्रमुख खंड में बंगाल में उर्दू आंदोलन की चचर्चा की गई है। लेखक ने बताया है कि कैसे शमीम अहमद ने उर्दू भाषा के अधिकारों की लड़ाई को एक व्यापक जन आंदोलन का रूप दिया। इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह केवल उर्दू भाषी समुदाय तक सौमित नहीं था, बल्कि इसमें विभिन्न वर्गों और समुदायों का भी समर्थन था।
शमीम अहमद बंगाल में उर्दू आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक थे। उनके नेतृत्व ने इस आंदोलन को एक व्यापक और प्रभावी दिशा प्रदान की। 2007 में, जब वे बंगाल में उर्दू आंदोलन के तहत सक्रिय हुए, तो उन्होंने इसे एक नई ऊर्जा और स्पष्ट उद्देश्य प्रदान किया। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी:
- उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिलानाः उनका मानना था कि पश्चिम बंगाल में जिन क्षेत्रों में उर्दू बोलने वाले समुदाय की आबादी 10% से अधिक है, वहां इसे दूसरी सरकारी भाषा के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए.
- 2. शिक्षा में उर्दू का संरक्षणः उन्होंने उर्दू स्कूलों की दुर्दशा पर आवाज उठाई और शिक्षा के माध्यम के रूप में उर्दू के उपयोग पर बल दिया।
- सरकारी नौकरियों में उर्दू भाषी समुदाय को अवसरः उन्होंने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि उर्दू बोलने वाले समुदाय को सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व मिले।
आंदोलन की चुनौतियां
बंगाल में उर्दू आंदोलन को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
- भाषाई राजनीतिः बंगाल में बांग्ला भाषा का प्रभाव बहुत अधिक था। उर्दू को समर्थन देना अक्सर बांग्ला भाषा और संस्कृति के खिलाफ माना जाता था।
- धार्मिक ध्रुवीकरण: उर्दू को केवल मुस्लिम समुदाय की भाषा मानने की प्रवृत्ति के कारण इसे सांप्रदायिक रंग दिया गया।
- सरकारी उदासीनताः बंगाल सरकार ने उर्दू भाषा को आवश्यक संसाधन और मान्यता देने में अनिच्छा दिखाई।
उर्दू आंदोलन की प्रमुख उपलब्धियां
शमीम अहमद और उनके साथियों के अथक प्रयासों ने बंगाल में उर्दू आंदोलन को एक प्रभावशाली आंदोलन में बदल दिया। इसके परिणामस्वरूप, 2011 में पश्चिम बंगाल सरकार ने उन क्षेत्रों में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिया, जहां उर्दू भाषी आबादी 10% से अधिक थी।
हालांकि, यह उपलब्धि आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण भील का पत्थर थी, लेकिन इसके बाद भी कई समस्याएं बनी रहीं। उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा मिलने के बावजूद इसे शिक्षा और प्रशासन में पूर्ण रूप से लागू करना आज भी एक चुनौती है। आंदोलन का वर्तमान प्रभाव
बंगाल में उर्दू आंदोलन ने न केवल उर्दू भाषा के संरक्षण के लिए एकनई जागरूकता पैदा की, बल्कि यह बंगाल के मुस्लिम समुदाय के सांस्कृतिक और सामाजिक अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक भी बन गया। आज भी, इस आंदोलन की सफलता को लेकर कई बहसें होती
कुछ आलोचकों का कहना है कि आंदोलन का प्रभाव सीमित रहा है, क्योंकि उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा मिलने के बावजूद, यह धरातल पर बहुत कम प्रभावी है। वहीं, आंदोलन के समर्थकों का मानना है कि इसने भाषा और सांस्कृतिक पहचान के प्रति एक नई जागरूकता उत्पन्न की है, जो आगे चलकर अधिक व्यापक सामाजिक बदलाव का आधार बनेगी।
बंगाल में उर्दू आंदोलन केवल एक भाषा के अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं था, बल्कि यह उस सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान के लिए भी एक लड़ाई थी, जो उपेक्षा और भेदभाव का शिकार हो रही थी। शमीम अहमद जैसे नेताओं ने अपने साहस, समर्पण और नेतृत्व से यह साबित कर दिया कि जब कोई समुदाय अपनी पहचान और अधिकारों
के लिए एकजुट होता है, तो वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। “संगतराश” में उर्दू आंदोलन का यह विस्तृत वर्णन इस बात को स्पष्ट करता है कि भाषा केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि एक पूरी संस्कृति और सामुदायिक पहचान की आत्मा होती है। इस आंदोलन ने यह दिखाया कि किसी भाषा का संरक्षण केवल उस भाषा के लिए नहीं, बल्कि उसके माध्यम से जुड़े लोगों के सम्मान और अधिकारों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
पुस्तक यह भी दिखाती है कि शमीम अहमद का योगदान केवल राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन तक सीमित नहीं था। उन्होंने सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी दृष्टि केवल वर्तमान समस्याओं को सुलझाने तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे समाज को एक ऐसी दिशा में ले जाना चाहते थे, जहां हर व्यक्ति को समानता और सम्मान प्राप्त हो।
लेखक की लेखन शैली और दृष्टिकोण
नूरुल्लाह जावेद ने इस पुस्तक को एक गहरी संवेदनशीलता और निष्पक्ष दृष्टिकोण के साथ लिखा है। उन्होंने शमीम अहमद की उपलब्धियों को महिमामंडित करने के बजाय उनके संघर्षों और चुनौतियों का यथार्थवादी चित्रण किया है। पुस्तक में लेखक ने अत्यंत संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए न केवल उनकी सफलताओं का वर्णन किया है, बल्कि उन परिस्थितियों का भी उल्लेख किया है, जिन्होंने उनके जीवन को आकार दिया।
प्रेरणा और संदेश
“संगतराश” केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक प्रेरणा है. जो यह दिखाती है कि एक व्यक्ति कैसे अपने विचारों और कर्मों से समाज में बदलाव ला सकता है। यह पुस्तक हर उस व्यक्ति के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है, जो सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्ष करने की इच्छा रखता है।
“संगतराश” एक साहित्यिक और सामाजिक धरोहर है, जो न केवल शमीम अहमद की कहानी को संरक्षित करती है, बल्कि समाज को यह संदेश भी देती है कि न्याय और समानता की लड़ाई किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है। यह पुस्तक न केवल पढ़ने योग्य है, बल्कि यह विचार करने के लिए मजबूर करती है कि हम अपने समाज और भविष्य के लिए क्या कर सकते हैं।
“संगतराश” उन सभी के लिए एक प्रेरणा है. जो समाज को बेहतर बनाने की दिशा में कार्यरत हैं। यह पुस्तक एक उदाहरण है कि कैसे एक साधारण व्यक्ति अपनी असाधारण इच्छाशक्ति और समर्पण से दुनिया में बदलाव ला सकता है।
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(रिजवानुल हक ऊर्दू साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं)