- लोक गायिका मनीषा श्रीवास्तव की कहानी उनकी जुबानी, प्रेरणादायक कहानी जो हकीकत है
बचपन में पिताजी ने मुझे शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए प्रयागराज भेजा। तो कुछ रिश्तेदारों ने पिताजी से कहा कि ‘श्रीवास्तव जी; बेटी के पढ़ावल और बेटी के बढ़ावल ठीक ना होला’ यानी बेटी को पढ़ाना और आगे बढ़ाना ठीक नहीं। गाने-बजाने से लड़कियां खराब हो जाती हैं। अच्छे घर की लड़कियां ये काम नहीं करतीं।
कई बार मेरी पढ़ाई छूटते-छूटते बची। छुट्टी में गांव आती तो डर बना रहता कि पता नहीं इस बार वापस लौट पाऊंगी या नहीं, लेकिन घर वालों को मुझ पर भरोसा था। बिहार के एक गांव से निकलकर मैंने ‘संगीत प्रभाकर’ की पढ़ाई पूरी की।
संगीत सीखने के बाद मैंने चैता, कजरी, संझा, पराती, बिरहा, निर्गुन, होरी, झूमर, सोहर गाना शुरू किया।
वो कैसेट का दौर था। भोजपुरी इंडस्ट्री में दो अर्थों वाले गानों का बोलबाला था। मैंने एल्बम बनवाने की कोशिश की तो कंपनियों ने कहा कुछ मसाला लाओ, कम कपड़ों में हीरोइन को नचाओ; भोजपुरी में यही डिमांड है, बिना मिर्च-मसाले के तुम्हारा गाना कोई नहीं सुनेगा।
मैंने बहुत मश्किल और मेहनत से संगीत सीखा था। संगीत मेरी साधना है। मैं संगीत के साथ धोखा कैसे करती? शुरुआती नाकामी ने मुझे और ढीठ बना दिया। मैंने सोच लिया कि चाहे जो हो जाए साफ-सुथरे भोजपुरी गाने ही गाऊंगी, भले अपने घर की चारदीवारी में गुनगुनाना पड़े। कोई सुनने वाला न मिले तो अपने लिए गाऊंगी, लेकिन भोजपुरी में गंदे और अश्लील गाने कभी नहीं गाऊंगी।
ईश्वर की कृपा रही आज लाखों लोग मेरे गाने सुनते हैं। कॉलेजों में पढ़ने करने वाले नई उम्र के लड़के और लड़कियां मेरे संस्कार गीतों को सुन माटी से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं।