विपक्ष के लिए दिल्ली अभी कोसों दूर

आलेख

-मनोज कुमार श्रीवास्तव
विपक्ष की जीत तब ही सुनिश्चित हो सकती है जब बीजेपी के खिलाफ जबरदस्त गोलबंदी हो और एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कुर्सी से उतारने के लिए सामुहिक मुहिम छोड़ी जाए।कांग्रेस को समझना होगा कि विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए अभी सही नहीं है।सम्भव है कि नए हालात में गांधी परिवार आगे प्रधानमंत्री का प्रत्याशी होने की जिद से पीछे हट जाए और विकल्प की ढेरों सम्भावनाएं पैदा कर दे।
नीतीश कुमार ऐसी ही किसी सम्भावना का फायदा उठाने के फिराक में आगे की राजनीतिक पारी खेलना चाहते हैं। मगर उनकी इस चाहत पर विपक्ष में हीं टकटकी लगाए नेताओं की फौज खड़ी है।अखिलेश यादव ने नीतीश कुमार की सम्भावना पर यह कहकर पानी फेर दिया है कि विपक्ष की ओर से तीन लोग 2024 की संभावना पर काम कर रहे हैं।इसमें चन्द्रशेखर राव,शरद पवार और ममता बनर्जी का नाम लिया लेकिन नीतीश को लेकर अखिलेश यादव को 2024 में कोई सम्भावना नहीं देख रहे हैं।ऐसे में नीतीश के लिए दिल्ली दूर है।
विपक्ष का बिखराव प्रधानमंत्री के रणनीतिक कौशल का चमत्कार है या उनके मजबूत भाग्य का यह विचारणीय विषय है।केंद्र में विपक्ष की पतवार नीतीश कुमार के हाथों में उम्मीद रखनेवालों की मान्यता है कि कांग्रेस की हालत पतली है।वह अपने बुरे दौर से गुजर रही है।उत्तरप्रदेश के पिछले चुनाव का नतीजा मिसाल है।बसपा ने स्पा का विरोध कर खुद को हाशिये पर दाल दिया।कांग्रेस हर मोर्चे पर हारने के बावजूद स्पा को प्रमुख विपक्षी दल मानने से इंकार कर रही है।
किसान आंदोलन की गोलबंदी का लाभ उठाने के लिए अखिलेश और जयंत चौधरी की कोशिश बेकार रही।नतीजे पूरी तरह से योगी आदित्यनाथ के हक में आ गये।कांग्रेस और अकालीदल में बिखराव का सीधा लाभ भगवंत मान को मिला।पंजाब की जीत से प्रधानमंत्री बनने का अरविंद केजरीवाल का सपना मजबूत हुआ है।बिहार में केजरीवाल अबतक नीतीश कुमार का परोक्ष रूप से समर्थन देते हुए आप पार्टी का विस्तार करने से बचते रहे थे।ममता बनर्जी से अच्छे सम्बन्ध होने के बावजूद आप ने गोवा चुनाव में टीएमसी को चुनौती देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिस उम्मीद से दिल्ली के अखाड़े में उतरने को बेताब हैं उसमें बड़े-बड़े दिग्गज पहले से मौजूद हैं।कांग्रेस के राहुल गांधी, महाराष्ट्र से शरद पवार, पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी, तमिलनाडु से एमके स्टालिन, यूपी से अखिलेश यादव, तेलंगना से चन्द्रशेखर राव,आप के केजरीवाल प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल है।मौका मिलने पर आंध्र के चंद्रबाबू नायडू व जगमोहन रेड्डी और झारखंड के हेमन्त सोरेन जैसे दर्जनों नाम शामिल है।
समय के अनुसार सबकुछ बदलता है और बदलता रहेगा।यदि वास्तव में विपक्ष को शासन करना है तो उसे अपने आप को बदलना होगा।अपने एजेंडे में बदलाव लाना होगा।कोई भी पक्ष यदि यह काम नहीं कर सकता तो शासन करने की बात भूल जाये।सत्ताधारी तो मात्र एक है परंतु विपक्ष अनेक है।सभी विपक्ष की सोंच सत्ताधारी बनने की है।सत्ताधारी का लड़ाई सिर्फ एक विपक्ष से है लेकिन विपक्ष की लड़ाई अनेक से है।
आज के राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में भी विपक्ष के लिए दिल्ली अभी दूर है।जदयू के सूत्रों के मुताबिक बीजेपी से अलग होने के बाद नीतीश कुमार केंद्र में भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं।मुख्यमंत्री निवास में रहते हुए बीजेपी विरोधियों को एक साथ लाना और राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ मोर्चा तैयार करना आसान नहीं होगा।ज्यादा से ज्यादा हो सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिलने पर नीतीश को देवगौड़ा की तरह प्रधानमंत्री की कुर्सी मिल जाये।लेकिन बीजेपी के दांव पेंच के बीच यह भी आसान नहीं है।
बिहार में अतिपिछड़ा और अति दलित का मोर्चा बनाकर नीतीश ने लालू यादव के वर्चस्व को तोड़ा था।आज बीजेपी नीतीश की उसी मॉडल को अपनाकर अपनी शक्ति बढ़ाती जा रही है।नीतीश को केसीआर की तरह अति महत्वाकांक्षी, ममता की तरह तुनकमिजाज, उद्धव ठाकरे की तरह हिंदूवादी नहीं कहा जा सकता है।बिहार से और पिछड़ी जाति होने के कारण हिंदी पट्टी में उन्हें अच्छा समर्थन मिल सकता है।नीतीश मार्क्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत की तरह अनेक दलों को जोड़ सकते हैं।सुरजीत की तरह सर्वमान्य होने के लिए नीतीश को बहुत कड़ी मेहनत करनी होगी हालांकि उन्हें स्वीकारने में क्षेत्रीय नेताओं को ज्यादा मुश्किल नहीं होगी।
नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वकांक्षा को परोक्ष रूप से विपक्षी दलों के सामने पेश कर रहे हैं।वे साझा विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में अपने नाम का अनुमोदन चाहते हैं।मगर वे इसमें कितना सफल होंगे यह कहना कठिन है ।सभी दलों के कद्दावर नेता यदि एक साथ नहीं आते हैं तो विपक्षी एकता कतई सम्भव नहीं ।इस बात की गारंटी कौन लेगा की पिछली बार की तरह इस बार नहीं पलटी मारेंगे।नीतीश 2024 का लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ने का आह्वान कर रहे हैं लेकिन खुद उनकी वजह से 2017 में विपक्षी एकता को गम्भीर ठेस लगी है जिससे वह भी शायद ही इनकार करेंगें।
लेकिन जो भी मोर्चा बने उसका नेतृत्व स्वयं न करें क्योंकि महागठबंधन वह क्यों छोड़कर गए थे इसका कारण अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है।विपक्ष के बिखरे होने के कारण ही सत्तारूढ़ जमात सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित हो गई है।नीतीश की पहल से क्या विपक्षी एकता की मुहिम को धार मिल पाएगी।देखा जाए तो विपक्षी एकता की टार जुड हैं नहीं पा रहे हैं।

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