उस साम्राज्य की राजधानी विश्व के सबसे बड़े शहर के रूप में प्रसिद्ध थी, वास्तु और ललित कलाओं के अद्भुत नमूनों से सुसज्जित थी।
विशालकाय सेना और भरपूर राजकोष भी था, जिसमें कुंओं में सोना पिघलाकर भर दिया जाता था। आर्थिक स्थिति इतनी उन्नत कि समाज के तथाकथित निम्न वर्ग भी सोने के आभूषण धारण करते थे।
परन्तु इस साम्राज्य से दो भूलें हुईं थीं… प्रथम, वे रोजगार, व्यापार और नौकरी को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठे थे। द्वितीय, उन्होंने 80,000 विदेशियों को अपने यहाँ बसा लिया था और उन्हें अपना भाई भी मानते थे।
एक दिन ऐसा आया जब विदेशीयों ने हमला किया और एन वक्त पर ये विदेशी अपने बंधुओं से जा मिले। इधर रोटी, रोजगार और व्यापार की चिंता में मग्न इन लाखों इंसानियत पसंद लोगों को एक दिन में ही समाप्त कर दिया और सात दिन बाद उस नगर में चिड़िया का पूत भी न बचा।
इसका सच देखना है तो देख आइये “हंपी के खंडहर”, उन इंसानियत और भाईचारे के झंडाबरदार के कटे सिरों पर आज भी ये खण्डहर अपना सिर धुनते हैं।
जिस राष्ट्रचिन्तन ने दक्षिण में लोगों को रोजगार और रोटी ही नहीं बल्कि “विजयनगर” जैसा कल्पनातीत वैभवशाली साम्राज्य दिया तो दूसरी ओर राष्ट्र के ऊपर रोजगार, व्यापार और निजी स्वार्थों की प्राथमिकता देने वालों के विचारों ने सिर्फ सात दिन में ही उसका नामोनिशान मिटा दिया।
केवल रोटी , रोजगार और व्यापार से आपके और आपके परिवार की सुरक्षा की गारंटी नहीं है, इसके साथ – साथ आंतरिक सुरक्षा के ऊपर चिंतन व नजर रखना ही आपके परिवार की सुरक्षा की गारंटी है। आपकी प्राथमिकता ही आपके परिवार की सुरक्षा तय करती हैं।
यह घटना देशी लेखक की किसी पुस्तक में से नहीं, बल्कि निकोलो कॉन्टी, अब्दुर्रज्जाक और डमिंगोज पेइस जैसे समकालीन विदेशी यात्रियों के विवरणों पर आधारित है!