(06 मार्च पुण्यतिथि विशेष)
– मुरली मनोहर श्रीवास्तव
“ब्रिटिश सरकार ने प्रतिष्ठित सम्मान नाइटहुड से नवाजना चाहा, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। खुदाबख्श लाइब्रेरी की ओर से प्रकाशित पुस्तक “जिन्ना एज आइ नी हिम” के अनुसार वर्ष 1937, 1947 और 1948 में क्रमश: इलाहाबाद, पटना और बनारस के विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टर की उपाधि प्रदान की थी।” |
• बिहार को उंचा उठाना ही इनके जीवन की एकमात्र प्रबल अभिलाषा थी
• डॉ. सिन्हा आधुनिक बिहार के निर्माता कहे जाते हैं
• जन्मस्थली मुरार गांव में नहीं है कोई यादगार चिन्ह
• पटना के पुराना सचिवालय इन्हीं की दान भूमि पर अवस्थित है
• संविधान सभा के प्रथम अस्थायी अध्यक्ष थे डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा
• इन्हीं के संघर्षरत जीजिविषा के कारण बंगाल से बिहार पृथक हुआ
• गांधी जी के निधन के बाद श्री सिन्हा ही कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता थे
• पटना में सिन्हा लाइब्रेरी इनके ही आवास में स्थापित है
धीरे-धीरे यूं ही उनकी कीर्तियां, धूमिल पड़ जाती हैं क्या,
जो गढ़ते हैं इतिहास, उन्हें लोग कभी याद करते हैं क्या ?….मुरली मनोहर श्रीवास्तव
वर्षों बीत गए, मगर उस घर में आज तक कोई दीप नहीं जल सका. कोई उसे सुरक्षित करना भी मुनासिब नहीं समझा. लोग आते गए, शब्दों से नवाजते गए. इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे जिस व्यक्तित्व को पूरी दुनिया अविभाजित आधुनिक बिहार के निर्माता के रुप में जानती है वो अपने ही में घर बेगाने हैं. हम बात कर रहे हैं संविधान सभा के प्रथम अस्थायी अध्यक्ष डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की.
बिहार को उंचा उठाना ही इनके जीवन की एकमात्र प्रबल अभिलाषा थी. इन्होंने बिहार टाइम्स नामक पत्र के संचालन में तथा इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला को सर्वांगीण विकास में अपना पूरा सहयोग दिया था. सिन्हा साहब ने ही हिन्दुस्तान रिव्यू तथा इंडियन पिपुल नामक पत्रों को निकाला. सिन्हा साहब का जन्म बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव अनुमंडल के मुरार गांव के एक कायस्थ कुल में 10 नवंबर 1871 को हुआ था. इनके पितामह बख्शी शिवप्रसाद सिन्हा डुमरांव अनुमंडल के तहसीलदार थे. इनके पिता बख्शी रामयाद सिन्हा एक उच्चकोटि के वकील थे तथा ये स्वभाव से ही परोपकारी एवं उदार थे.
बाल्यकाल में बड़े लाड़-प्यार से सिन्हा साहब का लालन-पालन हुआ. इनकी प्रारंभिक शिक्षा आरा जिला स्कूल में हुई थी. ये बचपन से ही बड़े कुशाग्र बुद्धि के थे. अपने सहपाठियों में ये सदा सर्वोत्तम हुआ करते थे तथा उनके सरदार बने रहते थे. इस कारण डॉ. सिन्हा की कुछ क्षति भी हुई, परंतु इन्होंने सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की.
होनहार वीरवान के होत चिकने पात वाली कहावत इन पर ठीक लागू होती थी. आरा जिला स्कूल से मैट्रिक पास कर आगे की पढ़ाई के लिए ये कोलकाता चले गए. इन्हें विदेश जाने की प्रबल इच्छा थी. अतः बिहार से विदेश जाने वाले प्रथम व्यक्ति डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ही थे, जो 18 वर्ष की अवस्था में ही सिन्हा साहब कट्टर सनातनियों के घोर विरोध की कुछ भी परवाह न कर विलायत चले गए, इस प्रकार इन्होंने बिहार के हिन्दुओं को विलायत जाने का मार्ग निष्कंटक बना दिया.
तीन वर्ष तक रहकर बैरिस्ट्री पास की और पुनः वर्ष 1893 में भारत लौट आए. इन्होंने सर्वप्रथम इलाहाबाद के हाईकोर्ट में अपनी बैरिस्ट्री आरंभ की थी, फिर 10 वर्ष के बाद ये पटना लौट आए थे. डॉ. सिन्हा ने अपनी शादी पंजाब के कायस्थ परिवार में की थी, मगर गांव के विरादरीवालों ने इसका विरोध किया, पर डॉ. सिन्हा ने इसकी कुछ भी परवाह न की.
बिहार और बंगाल को अलग करने के लिए आंदोलन किया शुरु था, इन्होंने उसी पर एक छोटी सी पुस्तक लिखी थी. इन्हीं के संघर्षरत जीजिविषा के कारण बंगाल से बिहार पृथक हो गया, यही कारण है कि डॉ. सिन्हा आधुनिक बिहार के पिता कहे जाते हैं. मुरार गांव शिक्षा के ख्याल से बहुत प्राचीन काल से ही शाहाबाद जिले के अंतर्गत (वर्तमान बक्सर जिला) अपना एक विशिष्ट स्थान रखता था. यहां सन् 1868 ई. में एक मिडिल इंगलिश स्कूल अत्यंत सुव्यवस्थित रुप में चलाया जा रहा था. ये स्कूल उस प्राचीन काल में अपने जमाने का प्रथम स्कूल माना जाता है. इनकी ख्याति अनेक दूर-दूर गांव में विख्यात थी. जबकि सन्1941 में यह मि.ई.स्कूल को वर्तमान हाई स्कूल के साथ मिला दिया गया.
अपने जीवन में हर बार एक नई इबारत लिखने वाले डॉ.सिन्हा को बड़े लाट साहब व्यवस्थापिका सभा के सदस्य भी चुना गया. बिहार में एक हाईकोर्ट और विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए इन्हें सदा लड़ना पड़ा था. बिहार नामक दैनिक भी इन्हीं की उत्कंठा का परिणाम रहा. दान में भी कभी पीछे नहीं हटने वाले डॉ. सिन्हा ने पटना में पुराना सचिवालय की भूमि को दान में दिया, तो पटना का सिन्हा लाईब्रेरी को भी स्थापित करने का श्रेय जाता है. मगर मुरार गांव में उनकी जन्मभूमि आज विरान पड़ी है. अब तो कुछ लोगों द्वारा उसे अतिक्रमित भी किया गया है. सरकारें बदलती रहीं मगर नहीं बदली तो उनके पैतृक गांव की स्थिति, वह सिर्फ एक कहानी बनकर रह गई है.
सन् 1921 ई. में डॉ.सिन्हा अर्थ सचिव और कानून मंत्री 5 वर्ष के लिए बनाए गए थे. तत्-पश्चात ये पटना विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर नियुक्त हुए थे. इनके समय में शिक्षा एवं न्याय के क्षेत्र में उन्नति हुई थी. प्रदेश से लगायत उस अंग्रेजी शासन के शीर्ष पर बैठे प्रत्येक शासक, बुद्धिजीवी वर्ग इनकी सहृदयता, विद्वता एवं लक्ष्य के प्रति दक्ष तरीके से परिणाम तक पहुंचने की कला का लोहा मानता था.
डॉ.सिन्हा आरंभ से ही कांग्रेस के सदस्य थे और आजीवन सदस्य बने रहे. वर्ष 1912 ई. के इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन के जेनरल सेक्रेटरी भी थे. ये नरम दल के नेताओं में एक थे. महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद सिन्हा साहब ही कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता थे. इसी कारण उन्हें स्थायी कांग्रेस के सदस्य बना दिए गए. इनकी शारीरिक अवस्था ढ़ल जाने के कारण ही सन् 1946 ई. में डॉ.सच्चिदानंद सिन्हा को संविधान सभा के अस्थायी सदस्य बनाए गए.
विद्या से सिन्हा साहब को काफी अनुराग था. इनकी विद्यानुरागिता का सबसे बड़ा कीर्ति स्तंभ पटना का सिन्हा पुस्तकालय है. यह नगर का सबसे बड़ा पुस्तकालय है. इस पुस्तकालय में जितनी पुस्तकें उस वक्त थी डॉ. सिन्हा साहब की पढ़ी हुई थी.
06 मार्च 1950 को डॉ.सिन्हा दुनिया से कूच कर गए पर हमारे हृदय में आज भी अमर हैं. ये मुरार और बिहार के ही नहीं बल्कि भारत के सर्वश्रेष्ठ नेताओं में से एक दूरदर्शी नेता थे. स्वतंत्रता के पुजारी, सरस्वती एवं न्याय की देवी के उपासक रहे हैं.