सहज आंखे…

विविध
  • पूजा भूषण झा, वैशाली, बिहार

मुझको आंखें तेरी सहज लगे
जब उन आंखों में झांक लिया,
श्लाघ्य थे वो हर शब्द तेरे
जिसको मैंने महसूस किया।

पुलकित कर देती हैं कुछ शब्द
जैसे परिष्कार हुआ हो मन का,
अलौकिक सी लगते है वह पल
रोम -रोम खिल उठे हो तन का।

स्वयं को जब भी स्पर्श हूं की
जैसे क्षितिज पर बैठी हूं,
शमित हुई फिर उर्मिला सी
कुछ निर्मल गंगा जैसी हूं।

क्षणिक सही पर कुछ बातें तो
अच्छादित मन को कर देते,
अमरतरंगनी की प्रवाह सी
ह्रदय को भी पावन कर देते।

अमलतास की फूल के भांति
ह्रदय रोग जब वह हर लेते,
एक मधुर एहसास है होती
पूर्व से ही निर्दिष्ट हो जैसे।

सर्वोउत्कृष्ट है इसकी भाषा
जिसमे आपार सहजता है,
मैं जब भी पढ़ती हूं इसको
तन-मन शीतल हो उठता हैं।

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