विदेशी मुद्रा भंडार की गाथा

आलेख

  • नीरज सिंह
    किसी देश के लिए विदेशी मुद्रा भंडार आखिर कितना महत्वपूर्ण होता है? कोई भी दो देश एक बराबर नहीं हैं, तो फिर किसी खास देश के लिए न्यूनतम विदेशी मुद्रा कितनी होनी चाहिए ताकि उसका काम सुचारू रूप से चलता रहे और अर्थव्यवस्था नकारात्मक ना हो? जाहिर सी बात है आज की तारीख में चीन और अमेरिका दुनिया में दो ध्रुवों की नुमाइंदगी करते हैं। वैसी स्थिति में दुनिया का सबसे विशाल विदेशी मुद्रा भंडार चीन के पास डॉलर में होना, जो कि एक अमेरिकन मुद्रा है, चीन के इच्छानुरूप है या उसकी मजबूरी है? मुख्तलिफ देशों द्वारा विदेशी मुद्रा भंडार रखने का चलन कब से शुरू हुआ? डॉलर ने सारी दुनिया का भरोसा आखिर कैसे जीता? किसी देश के पास विदेशी मुद्रा आती कैसे है? एक विशाल विदेशी मुद्रा भंडार किसी देश की अर्थव्यवस्था के चमक की गारंटी है, कैसे?

देश अपनी मुद्रा को किसी खास मूल्य पर स्थिर रखने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करते हैं। अगर चीन के पास दुनिया का सबसे विशाल विदेशी मुद्रा भंडार है तो इसका मतलब यह भी हुआ कि उसने अपनी मुद्रा युआन की तुलना में डॉलर का मूल्य बढ़ा दिया है। इस कारण विदेशों में उसका माल सस्ता हो जाएगा। तत्पश्चात, ज्यादा बिकेगा। मतलब और ज्यादा डॉलर की आमद चीन में हो जाएगी। मतलब उसका निर्यात अन्य देशों के मुकाबले प्रतिस्पर्धात्मक भी बना रहेगा। अत:, अपनी विदेशी मुद्रा भंडार को डॉलर में रखना चीन के लिए इच्छानुरूप बेशक ना हो परंतु उसके पास अन्य और कोई विकल्प नहीं। ठीक यही स्थिति दुनिया के अन्य देशों के साथ भी है। विदेशी मुद्रा भंडार का एक सबसे बड़ा गुण है उसकी तरलता। प्राकृतिक आपदा या अन्य विपरीत परिस्थितियों में उसे कभी भी कहीं भी आसानी से भंजाया जा सकता है, जैसे-भूकंप, बाढ़, सुनामी, तूफान या ज्वालामुखी विस्फोट के वक्त। ऐसे में देश में वस्तुएं बननी बंद हो जाती हैं या उन में बाधा उत्पन्न होती है। इस प्रकार निर्यातक अपने कमिटमेंट्स को पूरा नहीं कर पाते हैं। आयात को जारी रखने के लिए ऐसे में विदेशी मुद्रा की आवक बंद हो जाती है। तब देश का केंद्रीय बैंक अपनी विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल कर आयात को सुचारू बनाए रखता है। बड़े विदेशी मुद्रा भंडार के चलते विदेशी निवेशकों का विश्वास भी किसी देश की अर्थव्यवस्था में बना रहता है। विदेशी मुद्रा का विशाल भंडार होने के कारण वैश्विक रेटिंग एजेंसियां ऐसे देशों को बेहतर रेटिंग स्लॉट देती हैं। ऐसे देश अपने कर्ज भी समय पर चुका पाते हैं और उन्हें कम इंटरेस्ट पर सॉवरेन लोन भी मिल जाया करता है।

अप्रैल, 2022 के अनुसार चीन का सकल विदेशी मुद्रा भंडार 3188 billion-dollar है। इस मामले में वह सारी दुनिया में नंबर एक है। जापान का 1260 billion-dollar है। स्वीटजरलैंड का 1033 billion-dollar है। और चौथे नंबर पर भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अपने सर्वकालिक ऊंचाई 600 बिलियन डॉलर पर है। विदेशी मुद्रा भंडार का ज्यादा होने का सीधा सा मतलब है कि उस देश का निर्यात उसके आयात से ज्यादा है। व्यक्तिगत बचत के अनुरूप ही विदेशी मुद्रा भंडार को भी कोई देश डायवर्सिफाइड पोर्टफोलियोज़ में इन्वेस्ट करते हैं। इससे रिस्क भी कम होता है साथ ही साथ बचत पर बहुमूल्य ब्याज की कमाई भी होती है। जैसे भारत के विदेशी मुद्रा भंडार के एक विशाल भाग को अमेरिकन ट्रेजरी बिल्स में इन्वेस्ट किया गया है, सोने में निवेश किया गया है। साठ के दशक में जब अमेरिकन डॉलर और सोने का महत्व कुछ कम होने लगा तो इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड ने इनके विकल्प के तौर पर स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स की शुरुआत की। इसके अनुसार कोई भी देश अपनी विदेशी मुद्रा को आईएमएफ में पार्क कर सकते थें और किसी भी इमरजेंसी के वक्त उनकी निकासी भी कर सकते थें।

2010 से 2020 के बीच में भारत ने सॉफ्टवेयर निर्यात से ही 827.45 बिलीयन डॉलर की कमाई की। इसके अलावा पैट्रोलियम प्रोडक्ट्स, जेम्स एंड ज्वेलरी, ड्रग फॉर्मूलेशंस, कई तरह की मशीनें, गरम मसाले, चाय, कॉफी, तंबाकू, लोहा, स्टील भी भारत निर्यात करता है। 2004 से 2014 के बीच की यूपीए सरकार और 2014 से आज तक की नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार के बीच विदेशी मुद्रा की आवक सर्वाधिक हुई है। देश के निर्यातक विदेशी मुद्रा को अपने लोकल बैंकों में जमा करते हैं। लोकल बैंक उन्हें देश के केंद्रीय बैंक को भेज देते हैं। निर्यातक अपने ट्रेडिंग पार्टनर्स के द्वारा विदेशी मुद्रा डॉलर, पॉन्ड या यूरो में पाते हैं। अपने बैंक में वे विदेशी मुद्रा को राष्ट्रीय मुद्रा में परिवर्तित कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें कच्चे माल एवं अन्य जरूरतों के लिए या अपने कर्मचारियों को भुगतान करने के लिए इसकी जरूरत पड़ती है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बेशक सारी दुनिया में चौथे नंबर पर है, परंतु चीन के मुद्रा भंडार का यह मात्र पांचवा भाग है। अगर भारत भी चाहता है कि उसका विदेशी मुद्रा भंडार और विशाल हो तो उसे एक निर्यात ओरिएंटेड अर्थव्यवस्था बनना होगा। दुनिया में सबसे विशाल वर्क फोर्स के साथ हम सक्षम भी हैं और हमारी सरकारें इच्छुक भी, परंतु इसके लिए जरूरी नीतियों और प्रोग्राम्स की सख्त जरूरत है।

दूसरा विश्व युद्ध सारी दुनिया के लिए एक नसीहत लेकर आया था और गया भी तो एक संदेश के साथ। यही कि हम सबों का भविष्य साझा है। यह भी की अब दुनिया में तीसरे विश्वयुद्ध की गुंजाइश नहीं है। इसी पृष्ठभूमि में संयुक्त राष्ट्र संस्था की नींव पड़ती है और ब्रेटन वुड्स संस्थाओं की भी। यानी वर्ल्ड बैंक और इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड की। युद्ध ने हमें बहुत अच्छी तरह समझा दिया था कि अब हमें बहुत ही जिम्मेवारी पूर्वक आगे बढ़ना है। इन संस्थाओं से दुनिया के जरूरतमंद देश जरूरत पड़ने पर मदद ले सकते थें। और जो सामर्थ्यवान, जिम्मेवार और सुविधा संपन्न देश हैं वह इन संस्थाओं में निवेश कर सकते थें। यानी अपनी सरप्लस मुद्रा को यहां जमा कर सकते थें। इस पर उन्हें इंटरेस्ट भी मिलता है। ठीक अन्य बैंकों की तरह। लेकिन सारी दुनिया की मुद्रा कौन सी होगी इस बात पर भी मंथन चल रहा था। अपनी साख और स्वीकार्यता के कारण डॉलर के अलावा अन्य कोई मुद्रा दिखाई नहीं पड़ रही थी। अत:, बिना किसी अनुशंसा और सिफारिश के स्वत:स्फूर्त डॉलर विश्व मुद्रा बन गई।

किसी देश की विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा या छोटा होना विदेशी कारकों के अलावा उस देश की सरकार और केंद्रीय बैंक की वृहत और सूक्ष्म मॉनीटरी पॉलिसी पर भी निर्भर करता है। यह एक निहायत ही जटिल वाणिज्यिक, आर्थिक और वित्तीय प्रक्रिया का परिणाम होता है। होना तो यह चाहिए कि अमेरिका के फेडरल रिजर्व सिस्टम यानी फेड की तरह, जो कि वहां का केंद्रीय बैंक और मॉनीटरी अथॉरिटी है, सरकार इन संस्थाओं के कार्य में हस्तक्षेप ना करें। परंतु ऐसा विरले ही होता है। परिणाम यह है कि जब देश की अर्थव्यवस्था ढलान पर होती है तब सरकारें अपने हाथ खड़े कर लेती हैं। जैसा कि आज श्रीलंका में हो रहा है। कल ग्रीस, वेनेजुएला और नेपाल में हुआ था और पाकिस्तान तो खैर इसका सदा-सर्वदा जीता-जागता उदाहरण ही है। जब भी किसी देश की अर्थव्यवस्था नकारात्मक होती है तो उसका सर्वप्रथम झलक उसके विदेशी मुद्रा भंडार में दिखाई देता है। आज हम लोग श्रीलंका की हालत पर अफसोस जता रहे हैं परंतु 1990 में ठीक यही स्थिति भारत की भी हुआ करती थी। परिस्थितियां हम लोगों के विपरीत 1985 से ही होने लगी थीं, जब आयात में अप्रत्याशित वृद्धि होने लगी। सोवियत यूनियन टूट चुका था जिससे रुपए में हमारा लेनदेन होता था। 1990 के आते-आते हमारे रिजर्व में 20 दिन के आयात भर भी विदेशी मुद्रा नहीं बची थी। भारत जैसे विशाल देश और अर्थव्यवस्था की सहायता करने से विदेशी बैंकों ने भी अपने हाथ खड़े कर लिए थें। तब सोना गिरवी रखा गया और शेष इतिहास है। इस लेख के माध्यम से भारत सरकार को मेरी यही सलाह है कि वह देश की अर्थव्यवस्था को अर्थशास्त्रियों के भरोसे छोड़ दे। सारी प्रजातांत्रिक संस्थाओं को स्वाबलंबी, संवेदनशील और सार्वभौम रहने दे। देश के सर्वश्रेष्ठ दिमागों को अपना संपूर्ण योगदान देने दे, बिना किसी हस्तक्षेप या दबाव के।

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