हर दौर में समानान्तर फिल्मों पर काम कर निर्माता-निर्देशकों ने खुद को स्थापित किया

मनोरंजन

  • मुरली मनोहर श्रीवास्तव

तब मैं बहुत छोटा था, उस वक्त हमने अपने घर पर भोजपुरी फिल्म ‘बाजे शहनाई हमार अंगना’ की पूरी यूनिट को देखा और फिल्म की शुटिंग होते हुए देखा था। फिल्म क्या होता है, उसको बनाने में किस तकनीकि का उपयोग होता है, फिल्म की कहानी से भले ही कोई ताल्लुकात हो न हो गाने जरुर प्रभावित करते थे। बस दिल में एक ही जुनून रहता था कि फिल्म देखना है। इस फिल्म की पूरी यूनिट को मेरे पिता जी डॉ.शशि भूषण श्रीवास्तव जी डुमरांव (बक्सर) लेकर आए थे। आज की तरह डुमरांव में कोई कॉमर्शियल होटल, बैंक्वेट हॉल आदि नहीं हुआ करता था, सो सभी कलाकार हमारे घर में ही ठहरे हुए थे। इस फिल्म में डुमरांव में जन्में शहनाई नवाज भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने बतौर म्यूजिक डायरेक्टर अपना योगदान दिया था। वैसे तो उस्ताद ने हजारों फिल्मों में म्यूजिक दी, मगर बतौर म्यूजिक डायरेक्टर तीन फिल्मों मद्रासी फिल्म सनाधि अपन्ना, गुंज उठी शहनाई और बाजे शहनाई हमार अंगना में अपना योगदान दिया। इस फिल्म में आज की भोजपुरी फिल्मों की तरह कमायी का जरिया बनाकर काम नहीं किया गया था बल्कि इंसान की जिंदगी को पूरी तरह चरितार्थ तरीके से प्रस्तुत किया था, जिससे हर किसी को लगता था कि हमारी कहानी है। बाजे शहनाई हमार अंगना भोजपुरी फिल्म थी जिसमें उस समय के मशहूर अभिनेता भारत भूषण, नाज, देंवेंद्र खेंडेलवाल, पूर्णिमा जयराम आदि प्रमुख थे।
इन फिल्मों से हमने आज की फिल्मों की तरह कॉमर्शियल फिल्मों के प्रति उतना रुझान नहीं देखा था, जितना की आज देख रहा हूं। वैसे तो फिल्मों का तीन स्तर पर शुरुआती दौर से विभक्त किया गया है, जिसमें व्यावसायिक, समानान्तर तथा क्षेत्रीय सिनेमा। आज हम बात कर रहे हैं समानान्तर फिल्मों की जो किसी आंदोलन से कम नहीं है। इस आंदोलन की शुरुआत तो बांग्ला फिल्मों से हुई। सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन तपन सिन्हा जैसे निर्माताओं ने इसका निर्माण किया। आगे चलकर भारत और बांग्लादेश के अन्य फिल्म उद्योगों में प्रमुखता से स्थान मिली।
वर्ष 1920 और 1930 के दशक में ही भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की शुरुआत हो चुकी थी। वर्ष 1925 में पहली बार बाबू राव पेंटर ने ‘सावकारी पाश’ बनी जो एक गरीब किसान जो एक लालची साहूकार को अपनी जमीन देने को मजबूर हो जाता है और खुद दो जून की रोटी के वास्ते मजदूर बनकर पलायन कर जाता है। व्ही.शांताराम अभिनित यह समानान्तर फिल्म भारतीय सिनेमा के विकास में मील का पत्थर साबित हुई। 1937 में शांताराम की फिल्म ‘दुनिया न माने’ महिलाओं के ऊपर बनी। इस फिल्म में नारी स्वतंत्रता पर आधारित थी, जब हमारे समाज में महिलाओं को आदमी के पैर की जूती समझा जाता था, उनके लिए सबक साबित हुई थी।

समानांतर फिल्मों का आंदोलन
वो दौर था वर्ष 194 से 1965 का, जब सत्यजीत रे ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, बुद्धदेव दास गुप्ता, बिमल रॉय, ख्वाजा अहमद, चेतन आनंद, गुरुदत्त और व्ही शांताराम जैसे निर्देशकों ने समानांतर फिल्मों के लिए ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि इसे भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग का हिस्सा मान लिया गया। वर्ष 1943 में बंगाल में पड़ी अकाल पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने वर्ष 1946 में एक फिल्म बनायी धरती के लाल और इसी वर्ष ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा लिखित और चेतन आनंद द्वारा निर्देशित फिल्म ‘नीचा नगर’ ने कान फिल्म महोत्सव में ग्रांड पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया। फिर क्या सत्यजीत रे की पथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956) और अपुर संसार (1959) प्रसिद्ध फिल्में रहीं और कान्स फिल्म महोत्सव से लेकर बर्लिन और फिल्म समारोहों में कई बड़े पुरस्कार अपने नाम किए।


व्यवसायिकता से दूर
फिल्म को सामाजिक कुरीतियों को दूर करने तथा आपसी सामंजस्य को बेहतर तरीके से स्थापित करने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। मगर समय के साथ कई परिवर्तन का फिल्मों ने सामना किया है। एक तरफ फिल्मों में आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिहाज से बड़े पैमाने पर रुपए खर्च कर बहुत रुपए कमाने के लिए बड़े चेहरे, बड़े लोकेशन्स, कास्ट्यूम पर ज्यादा खर्च किए जाते हैं वहीं समानान्तर फिल्म इससे इतर समाज की उस सच्चाई से लोगों को रुबरु कराते हैं जिससे हर किसी को ऐसा लगता है जैसे मेरी कहानी है। या अक्सर असमानताएं ग्रामीण इलाकों में जाति-धर्म के भेद, ऊंच नीच के भेद, महिला- पुरुष के बीच जैसे भेद देखने को मिलते हैं। इन सारी कुरीतियों से समानान्तर फिल्मों के निर्देशकों ने बिना किसी आर्थिकता की परवाह किए फिल्म को एक नई दशा दिशा दी। ये बात अलग है कि इन फिल्मों से कमायी कोई खास नहीं हुई, बहुत चर्चाएं नहीं हुईं क्योंकि इन समानान्तर फिल्मों में कथानक को केंद्रित करते हुए मजे हुए स्टेज शो के कलाकारों के माध्यम से फिल्मों का निर्माण किया जाता रहा। नतीजा सबके सामने रहा कि इन फिल्मों से जो भी कलाकर, निर्देशक उभरकर सामने आए वो फिल्म इंडस्ट्री में अटल पहाड़ की तरह स्थापित हो गए।


फिल्मों में बिहारी प्रतिभा
समानान्तर सिनेमा भारतीय सिनेमा में एक फ़िल्म-आन्दोलन था, जो 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल राज्य में मुख्यधारा के वाणिज्यिक भारतीय सिनेमा के विकल्प के रूप में उत्पन्न हुआ,जिसका प्रतिनिधित्व विशेष रूप से लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा ने किया, जिसे आज बॉलीवुड के रूप में जाना जाता है। अगर हम बात करेंगे बिहार की पृष्ठभूमि से तो 1962 में कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित ‘गंगा मइया तोह पियरी चढ़इबो’, 1963 में एसएन त्रिपाठी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गंगा’ सफल फिल्मों में रहीं वहीं निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक प्रकाश झा ने समानांतर फिल्म ‘दामुल’ बनायी जो उन्हें स्थापित कर दिया। आगे चलकर प्रकाश झा ने शूल, अपहरण, आरक्षण, राजनीति जैसी फिल्मों ने जमीनी प्रासंगिकता को दर्शाया। बिहारी कलाकार रंगमंच से लेकर फिल्म के क्षेत्र में अभिनेता, निर्देशक के रुप में खुद की पहचान तो कायम की ही अपनी प्रतिभा का हर स्तर पर लोहा भी मनवाया। बिहार में फिल्मों की कहानी से लेकर कलाकारों की जीवटता ने फिल्म नगरी में अलग पहचान दी। इनलोगों ने अपनी प्रतिभा से कभी समझौता नहीं किया। कई बार तो अर्थाभाव में कला पनपने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। हम बात करें फिल्मों में कला जगत की तो शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को कैसे भुलाया जा सकता है। इन्होंने फिल्मों में अपना अपना म्यूजिक देकर नया अध्याय जोड़ दिया। गीतकार शैलेंद्र, चित्रगुप्त आदि को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने अपनी ईमानदार कोशिश से फिल्म जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी।

साहित्यकारों का फिल्म की तरफ रुख
हलांकि फिल्मों की तरफ भारत सरकार ने 1960 में रुख किया, उसने भारतीय विषयों पर आधारित स्वतंत्र कला फिल्मों का वित्तपोषण शुरु किया। गिरीश कासारवल्ली, गिरीश कर्नाड और कारन्त ने कन्नड़ फिल्म उद्योग में समानांतर सिनेमा के लिए रास्ता बनायी। इस दौर में कई साहित्यकारों ने सिनेमा में प्रवेश किया। फिल्म निर्माताओं में से कुछ प्रमुख व्यक्तित्व पी लंकेश, जीवी अय्यर और एमएस सथ्यू थे, जिनका बाद में 1980 के दशक में टीएस नागभरण, बारगुरु रामचंद्रप्पा, शंकर नाग, चन्द्रशेखर कम्बार ने अनुसरण किया था। अभिनेताओं में लोकेश, अनंत नाग, एल वी शारदा, वासुदेव राव, सुरेश हेब्लिकर, वैशाली कसरवली, अरुंधति नाग और कई अन्य ने प्रसिद्धि प्राप्त की। फिल्म-निर्माताओं ने अपनी अलग शैली में यथार्थवाद को बढ़ावा देने की पूरी कोशिश की। इस समय के समानांतर सिनेमा ने युवा अभिनेताओं की एक पूरी नयी पीढ़ी खड़ी की जिसमें शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, दीप्ति नवल, फारुख शेख और हेमा मालिनी, राखी, रेखा जैसे व्यावसायिक फिल्मों के कलाकारों ने भी कला सिनेमा में अपना योगदान दिया है। समानान्तर फिल्मों में बांग्ला, तेलगू, कन्नड़, असमी, मणिपुरी, हिंदी और अंग्रेजी फिल्मों की एक बड़ी फेहरिस्त शामिल है।

मुख्यधारा से हाशिए पर रहा
भारतीय फिल्म जगत में समानान्तर फिल्मों में गिरावट की मुख्य वजह बनी ये कि एफएफसी या नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने इन फिल्मों के वितरण या प्रदर्शनी पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार इन फ़िल्मों को प्रदर्शित करने के लिए कुछ फ़िल्मी सोसाइटियों को छोड़ दिया गया; वह भी एकल स्क्रीनिंग के आधार पर, जिससे इसको बड़े फलक पर स्थान नहीं मिला। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि उन फिल्मों का जो क्लास है वो आज भी अपने पोजिशन को कायम रखे हुए है। समानांतर सिनेमा अपने वास्तविक अर्थों में हमेशा मुख्यधारा के सिनेमा के हाशिए पर रहा। समानांतर सिनेमा ने विश्वदृष्टि को खारिज कर दिया था जो मुख्य रूप से मुख्यधारा के सिनेमा में सन्निहित थे, जिन्हें उन्होंने मुख्यधारा के उत्पादन, वितरण और प्रदर्शनी प्रणाली में कभी स्वीकार नहीं किया।
‘समानान्तर सिनेमा’ शब्द को बॉलीवुड में निर्मित ऑफ-बीट फिल्मों पर लागू किया जाने लगा है, जहां कला फिल्मों में पुनरुत्थान का अनुभव होना शुरू हो गया है। भारत में निर्मित कला फिल्मों के अन्य आधुनिक उदाहरणों को समानान्तर सिनेमा शैली के भाग के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसमें राम गोपाल वर्मा का सत्या (1998), रितुपर्णो घोष का दहन (1997), उत्सव (2000), नागेश कुकुनूर का 3 दीवारें (2003), डोर (2006), मणिरत्नम का युवा (2004), मनीष झा की मातृभूमि (2004), सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी (2005), जाह्नु बरुआ की मैंने गांधी को नहीं मारा (2005), पान नलिन की घाटी (2006), ओनीर की माई ब्रदर…निखिल (2005), बस एक पल (2006), अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे (2007), विक्रमादित्य मोटवाने की उदय (2009), किरण राव की धोबीघाट (2010), अमित दत्ता की सोनचिड़ी (2011), आनंद गांधी की शिप ऑफ शिसस (2013) प्रमुख हैं। आमिर खान ने अपने प्रोडक्शन स्टूडियो के साथ 21 वीं सदी की शुरुआत में सामाजिक सिनेमा के अपने ब्रांड की शुरुआत की, जिसमें व्यावसायिक मसाला फिल्मों और यथार्थवादी समानांतर सिनेमा के बीच का अंतर था, जो कि पूर्व के मनोरंजन और उत्पादन मूल्यों के साथ बाद के विश्वसनीय कथनों और मजबूत संदेशों का संयोजन है।
1940 और 1950 के दशक में भारतीय समानांतर सिनेमा की प्रारंभिक अवधि के दौरान आंदोलन इतालवी सिनेमा और फ्रांसीसी सिनेमा से प्रभावित हुआ। विशेष रूप से इतालवी नवजागरण के साथ-साथ फ्रांसीसी काव्यात्मक यथार्थवाद से। इस तरह से देखा जाए तो समानान्तर फिल्मों के लिए हर दशक में कुछ न कुछ काम किया गया है। क्योंकि कोई बी निर्माता क्यों न हो खुद को स्थापित करने और अपने अंदर की काबिलियत को प्रस्तुत करने के लिए समानान्तर फिल्मों पर जरुर काम किया। इस तरह के फिल्म निर्माण से निर्माता, निर्देशक अहमियत बनी रहती है और समानान्तर फिल्में ही उन्हें स्तरीयता प्रदान करती हैं।

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