- मनोज कुमार श्रीवास्तव
आत्मनिर्भता के पथ पर भारत को ले जाने में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान है।महिलाओं का आर्थिक रूप से सशक्त होना उनके भविष्य को तय करता है।यदि कोई अपना निर्णय ले सकता है तो सही मायने में वह पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।अनेक मामलों पर हमारा निर्णय निर्भरता की वजह से प्रभावित होता है आज देश में महिलाओं के उत्थान या उनकी हर क्षेत्र में भागीदारी बढ़ाने पर खासा बल दिया जा रहा है।लेकिन अभी भी कुछ रूढ़िवादी विचार और धर्म के ठेकेदार उनके प्रति संकीर्ण मानसिकता रखे हुए हैं जिस कारण देश दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराई और कन्या भ्रूण हत्या के अपराध से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है।
हालांकि इसके लिए महिलाएं भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं।अधिकांश घरों में जब लड़के की शादी होती है तब दहेज की और जब किसी घर में लड़की पैदा होती है तब नकारात्मक बातें करने वालों में महिलाएं भी शामिल पायी जाती है।इन समस्याओं का अंत कर भारत की संस्कृति को संभालने के लिए पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी।भारत तबतक सशक्त नहीं बन सकता जब तक हर वर्ग के लोग लड़का-लड़की के बीच भेदभाव की संकीर्ण मानसिकता नहीं त्यागते और बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ पर अमल नहीं करते।
वास्तव में समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की जितनी अधिक हिस्सेदारी बढ़ेगी आपराधिक घटनाओं में उतनी अधिक कमी आएगी।वैसे समय के साथ महिलाओं के प्रति लोगों की सोंच में काफी बदलाव आया है। भारतीय सामाजिक संरचना में महिलाएं काम की तलाश में बाहर नहीं जाया करती थी।इसलिए उनके पास कोई आर्थिक स्वतंत्रता नहीं थी।आज परिस्थितियां बदली है।महिलाएं घरों से बाहर निकली हैं। सभी क्षेत्रों में नौकरियां कर रही हैं।
निजी क्षेत्रों में कई बार, कई जगहों पर उन्हें आज भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।लम्हें समय तक भारतीय पुरुष व महिला खिलाड़ियों को बीसीसीआई द्वारा दी जाने वाली सलाना फीस में भेदभाव था, जिसे 2022 में जाकर दूर किया गया।फ़िल्म उद्योग में भी पुरुषों की तुलना में फीस काफी कम है।फ़िल्म निर्देशन, उद्दीमता एवं कारपोरेट के प्रमुख जैसी जगहों पर एकाध छोड़कर केवल पुरुषों का हीं वर्चस्व है जो दर्शाता है कि पुरूष प्रधानता के लक्षण अभी भी मौजूद हैं।
भारतीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ठीक ही कहा है कि यदि महिलाओं को मानवता की प्रगति में बराबरी का भागीदार बनाया जाए तो हमारी दुनिया अधिक खुशहाल होगी।भारत में महिलाओं की आजादी को लेकर सरकार द्वारा किये जा रहे कल्याणकारी योजनाओं पर सन्तोष जताते हुए कहा है कि इसमें महिलाओं की बढ़चढ़ कर भागीदारी हीं उनके उन्नति के रास्ते के द्वार खोल खोलते हैं।आज अंतराष्ट्रीय महिला दिवस, ईच-वन -टीच -वन, आओ बहनों हाथ बढ़ाओ,कदम से कदम मिलाओ आदि नारों के शोर दशकों से सुना जा रहा है।नि:सन्देह ये नारे बहुत अच्छे हैं मगर उन लड़कियों के लिए क्यों नहीं जिनको जहर दिया जा रहा है, मारा जा रहा है।
धर्म,जाति के गठजोड़,रूढ़िवादी व अंधविश्वास ने महिलाओं को शोषित किया है।ऐसे में महिलाओं की आर्थिक सशक्तता बहुत जरूरी है।पैसे के लिए वे अपने घर के पुरुषों जैसे पिता,भाई, पति या पुत्र पर निर्भर करती थी।देश दुनिया में इतने महिला संगठन, स्वयं सहायता समूह, बुद्धिजीवी हैं लेकिन उनकी ओर से ईरान-अफगानिस्तान आदि देशों की बेबस लड़कियों की स्थिति पर कोई विरोध नहीं हो रहा है जो आज नहीं तो कल, किसी न किसी तरह से मेरी जा सकती है।सोंचना होगा कि यदि लड़कियां हीं नहीं रहेगी तो अंतराष्ट्रीय दिवस,सिस्टरहुड,लैंगिक समानता जैसे नारे किसके लिए लगाएंगे।
अभी भी समय है आगे आकर आबादी के साथ हो रहे इस अन्याय को रोकने के लिए एकजुट होकर आवाज को बुलंद करना चाहिए।अफगानिस्तान में भी ऐसा होते फेख जा रहा है।जहां कट्टरपंथी ताकतें लड़कियों को पढ़ने देना नहीं चाहती।इसके लिए उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं।कट्टरपंथी तथाकथित संस्कृति का आवरण ओढ़कर लड़कियों को दोयम दर्जे की जिंदगी जीने पर मजबूर कर रहे हैं, डरा रहे हैं, भगा रहे हैं और मार रहे हैं।वास्तव में कट्टरपंथीओं को लगता1 है कि वे पढ़-लिख गई तो हर तरह के अन्याय को चुनौती देने लायक हो जाएंगी।
दुनिया के बहुत से देशों में कदर ऐसा देखा जाता है कि सरकारें कट्टरपंथी शक्तियों के आगे झुक जाती है और एड़ी घ्यनाओं पर कोई बयान देने या कार्रवाई करने से बचती है।दुनिया के सामने यह भयावह स्थिति
की जानकारी सामने आई है।आज जब ईरान, अफगानिस्तान में महिलाओं को तरह -तरह से सताया जा रहा है तो खुद को भारी प्रगतिशील मानने वाले चुप्पी क्यों साधे हुए हैं?क्या मानवाधिकार और महिलाओं के अधिकारों के लिए बोलने पर लोगों के नाराज हो जाने पर कोई चुनाव हारने के ख़तरा है।चुप्पियाँ कितनी खतरनाक हो सकती है,क्या यह नहीं जानते।