खो रही संस्कृति और धूमिल पड़ते संस्कार की देन है वृद्धाश्रम

आलेख

  • मनोज कुमार श्रीवास्तव
  • खून के रिश्ते अपनों को ठुकरा रहे हैं।देश में लगातार वृद्धाश्रमों की संख्या में इजाफा हो रहा है।मौजूदा स्थिति में देश में वृद्धों की संख्या में प्रतिवर्ष 25% की वृद्धि हो सकती है।कोरोना काल में ऐसे बुजुर्गों की जिंदगी काफी कष्टकारी हो गई थी।बहु-बेटे घरों से निकाल दे रहे थे।एक सर्वेक्षण में खुलासा हुआ कि 35% लोगों को बुजुर्गों की सेवा करने में खुशी महसूस नहीं होती।परोपकारी संगठन हेल्पज इंडिया के सर्वे के मुताबिक 29%लोग यह स्वीकार करते हैं कि वे अपने बुजुर्गों को घर में रखने के बजाय वृद्धाश्रम में रखना चाहते हैं।एक-चौथाई लोगों का मानना है कि बुजुर्गों की देखभाल करने में उन्हें निराशा और कुंठा होती है।
  •         परोपकारी संगठन हेल्पज इंडिया नामक संस्था के अनुसार देश में 1,176 वृद्धाश्रम हैं।हालांकि इसमें से कुछ बन्द हो गए या कुछ केवल नाम के चल रहे हैं।सरकारी आंकड़ो के अनुसार देश में करीब 728 वृद्धाश्रम है।केरल में वृद्धाश्रमों की संख्या सबसे अधिक 278 है।बुजुर्गों की जनसंख्या 1951 में 1.9करोड़,2001में 7.6 करोड़,2011 में 10.3 करोड़,2021 में 14.3 करोड़ तथा 2026 में 17.3 करोड़ (अनुमानित)।
  •        बुजुर्गों के पास अनुभवों का खजाना होता है।समाज और परिवार की अमूल्य धरोहर वरीष्ठ जन हैं।उनकी हिफाजत और सेवा करना समाज और परिजनों का दायित्व और कर्त्तव्य है।हम सभी को एक दिन वृद्ध होना है।परिजनों को बुजुर्गों को अपने साथ रखना चाहिए ताकि उन्हें वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं पड़े।समाज पर पूंजी हावी होती जा रही है।पूंजी की आक्रामता से समाज में व्यक्तिवाद बढ़ रहा है।मूल्यों का पतन हो रहा है फ्लैट कल्चर बढ़ने से मनुष्य संवेदना से दूर होता जा रहा है। बाजार और काम का दबाव बढ़ने का सीधा असर आज की युवा पीढ़ी पर देखा जा रहा है।इस कारण बुजुर्गों पर मुश्किलें आ रही है।
  •          चाहे घर का आंगन हो या ड्राइंग रूम में अपने पोते-पोतियों,नाती-नातिनों के साथ समय बिताने की बजाय वे एकांकी जीवन जी रहे हैं।उनके जीवन में आज दर्द और आंसू दोनों है।बेटे-बेटियों की जिंदगी सँवारने के बाद तन्हा की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। कुछ बेटियों को इस बात का बुरा जरूर लगेगा पर सच है कि जिन बेटियों से घर का काम नहीं होता उनको कहीं पर भी जीवन में उचित सम्मान और उचित स्थान नहीं मिलता।जो बेटी अपनी मां को हर समय कम में व्यस्त पाकर भी उनकी मदद करने का न सोंचे,उम्रदराज मैन से कम उम्र की जवान होकर भिमान का हाथ बंटाने का जज्बा न रखे वो किसी और की माँ  और किसी अपरिचित परिवार के बारे में क्या सोंचेगी।
  •       इसलिए सभी माता-पिता को चाहिये कि वे इन छोटी-छोटी बातों पर अवश्य ध्यान दें।बेटी कितनी भी प्यारी क्यों न हो उससे घर का काम-काज अवश्य कराना चाहिए,समय-समय पर डांटना चाहिए जिससे ससुराल में ज्यादा काम पड़ने या डांट पड़ने पर उसके द्वारा गलत करने की कोशिश न कि जाय।हमारे घर बेटी पैदा होती है तो हमारी जिम्मेदारी बेटी से बहु बनाने की है।अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभायी, बेटी में बहु के संस्कार नहीं डाले तो इसकी सजा बेटी को तो मिलती है और साथ में मां-बाप को भी मिलती है। 
  •     वृद्धाश्रम में माँ-पिता को देखकर सभी लोग बेटों को ही कोसते हैं लेकिन ये कैसे भूल जाते हैं कि उन्हें वहां भेजने में किसी की बेटी का भी अहम रोल होता है वरना बेटे अपने माँ-बाप को शादी के पहले वृद्धाश्रम में क्यों नहीं भेजते।सभी को सुंदर बहु चाहिए लेकिन जब हम अपनी बेटियों में एक अच्छी बहु के संस्कार डालेंगे तभी तो हमें संस्कारित बहु मिलेगी।
  •       पारिवारिक उपेक्षा, बेहतरअवसरों की तलाश में बच्चों के प्रवासन,पलायन से,परिवारों के विघटन और शिक्षा, प्रौद्योगिकी आदि के मामलों में नयी पीढ़ी के साथ तालमेल बिठा सकने में असमर्थता जैसे कारक वृद्ध व्यक्तियों की आवश्यकता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है जो चिंता का विषय है।परिवार दिनोंदिन टूटते जा रहे हैं।यह बात सही है कि वर्तमान समय में वृद्ध व्यक्तियों तथा उनकी भावी पीढ़ी व संतानों के बीच में दूरियां बढ़ी है।पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़ में शामिल होने को आतुर वर्तमान पीढ़ी अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य को भूलते जा रहे हैं।  यह सत्य है कि बेटियां हीं किसी के घर  जाकर बहु बनती है।अगर वह भी बुजुर्ग सास-ससुर को अपने माता-पिता के समान ही समझते हुए व्यवहार करें तो वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं पड़ेगी।जिन बच्चों के माता-पिता बचपन में बहुत सहारा देकर पालते हैं, वही बच्चे अपने माता-पिता को बड़े होने पर बोझ समझने लगते हैं।हमारी संस्कृति में परिवार नामक संस्था को बहुत सोंच-समझकर बनाया गया था लेकिन आज पश्चिमी -करण के प्रभाव से यब व्यवस्था टूट रही है इसलिए वृद्धाश्रमों की आवश्यकता हो रही है।

 भारत में कुछ वृद्धों की इतनी दयनीय स्थिति है कि। मन्दिरों,मस्जिदों, सड़कों,चौराहों पर भीख मांगते हुए देखा जा सकता है।ऐसे में वृद्धाश्रम उनके लिए स्वर्ग समान है।यह शास्वत है कि इंसान जरूरत से ज्यादा हीं स्वार्थी हो चुका है।इसके लिए हमारी पीढ़ी भी दोषी है।पहले संयुक्त परिवार होते थे,वृद्धाश्रमों की संख्या नगण्य होती थी।अब तो अक्ल परिवार का समय है मियां,बीबी और एक -दो बच्चे।किसी को किसी की परवाह कहां, समय और आवश्यकता कहां इसलिए वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों को डाल दिया जाता है।रिश्ता चाहे जो भी हो और अपने फर्ज की इतिश्री समझ लिया जाता है।

  युवा युगल अपने माता-पिता की सम्पति किसी तरह से हथिया कर उन्हें घर के बाहर का रास्ता दिखाने में झिझकते नहीं है।बदलती सामाजिक व्यवस्था और टूटती संयुक्त परिवार संस्था का परिणाम है वृद्धाश्रम।इनका चलन विदेशों से चला और धीरे-धीरे भारत में प्रवेश कर गया।जो लड़कियां अपने माँ-बाप को जी-जान से चाहती है उनकी खुशी के लिए तत्तपर रहती है वही लड़कियां अधिकाशतः ससुराल में आते ही बूढ़े सास-ससुर को माता-पिता न समझकर एक बोझ के रूप में समझने लगती है।कुछ लड़के तो कुछ समय के लिए सन्तुलन बनाने का प्रयास करते हैं किंतु अंत में हारकर अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं।

रोज-रोज के कलहपूर्ण वातावरण, अपमान एवं उचित व्यवहार न मिलने से माता-पिता भी वृद्धाश्रम जाने में कोई गुरेज नहीं करते हैं।यही कारण है कि आज के समय में वृद्धाश्रमों की आवश्यकता महसूस की ज रही है ताकि बुजुर्ग माता-पिता सुकून के साथ अपनी आखिरी पल जी सके।आज का युवा अपने बुजुर्गों को देखकर यह नहीं समझता कि उसका भी भविष्य वृद्धाश्रम है और आज जो अपने बुजुर्गों के साथ कर रहा है, कल उसके साथ भी होना है।लालसा भरी कथित स्वतंत्रता पाने की चाह में वृद्धजनों को वृद्धाश्रम में भेज देने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ रही है।

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