– मुरली मनोहर श्रीवास्तव
“था बूढ़ा पर वीर बांकुड़ा कुंवर सिंह मर्दाना था, मस्ती की थी छिड़ी रागिनी, आजादी का गाना था, भारत के कोने-कोने में होता यही तराना था……”
आज भी इस तरह के लोग परंपराओं में रची बसी बाबू कुंवर सिंह के वीरता की कहानी किसी न किसी रुप में याद जरुर करते हैं। 1857 का भारतीय विद्रोह, प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के रुप में हम जानते हैं। यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक विद्रोह था। दो वर्षों तक भारत के विभिन्न इलाकों में चलने वाले इस विद्रोह की शुरुआत छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों और विद्रोह से हुई, लेकिन आगे चलकर इसने बड़ा रुप ले लिया। विद्रोह की आग में तपते भारतीय योद्धाओं ने अपना सबकुछ त्यागकर, आर पार की लड़ाई के लिए हुंकार भरते मैदान में उतर गए।
80 वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना थाः
अंग्रेजीं सियासत जदाओं ने इसे हल्के में ले लिया। उन्हें अंदाजा नहीं था कि कूनबों में बंटी ये रियासतें अंदर ही अंदर एक हो चुके थे। जैसे ही इसकी भनक अंग्रेजों को लगी उनलोगों ने रियासती समूह को फूट डालो राज करो की नीति के तहत अपने ही मूल्क के लोगों को इसके लिए हथियार बनाया।कुछ राजाओं ने इस लड़ाई में देश के कई राजाओं ने अपनी रियासत को बचाने के लिए अंग्रेजों की दास्ता स्वीकार कर ली। फिर क्या अपनों के ही खून से अंग्रेजों के साथ मिलकर होली खेलना शुरु कर दिया। बावजूद इसके हिंदुस्तानी मिट्टी के रण बांकुरों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्हीं में से एक बाबू कुंवर सिंह थे। जिनके बारे में कहा जाता है कि….’80 वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था, था बूढ़ा पर वीर बांकुड़ा कुंवर सिंह मर्दाना था…’
‘बाबू हो कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उडेला अबीर, आहो लाला बंगला में उडेला अबीर….’
‘पंवरिया’ मुसलमान बिरादरी एक लोकगीत अमूमन गाते हैं- “भोजपुर में डुमरांव बसेलें, उहो बाड़ें फिरंगिये नूं…सब बिसेन मिली घुस लुकईले, बाबू पडलें अकेले नूं….” ऐसे और भी कई लोकगीत की विधाएं हैं जिसमें बाबू कुंवर सिंह की वीर-गाथाओं का जिक्र जरुर मिलता है।
बक्सर युद्ध के बाद बढ़ा अंग्रेजों का मनोबलः
इधर 1757 में प्लासी युद्ध तो 1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अंग्रेजों का बंगाल पर पूरी तरह से अधिकार हो गया। इन युद्धों में हुई जीत ने अंग्रेजों की ताकत को बहुत बढ़ा दिया और अंग्रेजों को भारत की परम्परागत सैन्य क्षमता से अंग्रेजी सेना को श्रेष्ठ साबित कर दिया। यहीं से ईस्ट इंडिया कंपनी ने संपूर्ण भारत पर अपना प्रभाव स्थापित करना शुरु कर दिया।
1857 आते-आते गदर की शुरुआत हो चुकी थी। इसकी आग में मूल्क जलने लगा था। चारो तरफ खून की नदियां बहने लगी थीं। इस युद्धका बड़ा कारण राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सैनिक तथा सामाजिक था।अंग्रेज ऑफिसर लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति से झांसी, अवध, सतारा, नागपुर और संबलपुर को अंग्रेजी़ राज्य में मिला लिया गया और इनके उत्तराधिकारी राजा अंग्रेजी़ राज्य से पेंशन पाने वाले कर्मचारी बन गये। शाही घराने, जमींदार और सेना बेरोजगार और अधिकारहीन हो गए। हलांकि डलहौजी के शासन काल में 10 लाख वर्गमील क्षेत्र कंपनी के अधिकार में आ गया।
आपसी सामंजस्य का नहीं होना ही बन गई चुनौतीः
विद्रोह शुरु होने के कई महीने पहले से ही तनाव की स्थिति बनने लगी थी। कई घटनाएं इसकी चश्मदीद बनीं। 24 जनवरी 1857 को कलकत्ता के नजदीक आगजनी की कई घटनाएं घटित हुईं। 26 फ़रवरी 1857 को 19 वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री ने नये कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया। 34 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सिपाही मंगल पांडेय ने इस दौरान रेजीमेंट के ऑफिसर लेफ्टीनेंट बाग पर हमला कर उसे घायल कर दियाऔऱ खुलेआम विद्रोह का ऐलान कर दिया। 6 अप्रैल 1857 को मंगल पांडेय का कोर्ट मार्शल कर आखिरकार 8 अप्रैल को फांसी दे दी गई।1765 में स्थापित दानापुर छावनीको बैरकपुर के बाद दूसरी सबसे बड़ी छावनी मानी जाती है। यही से विद्रोह की ज्वाला धधकने लगी। 25 जुलाई 1857 को यहां के क्रांतिकारी सिपाहियों ने कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया और विद्रोही सेना यहां से रण बांकुंरे वीर कुंवर सिंह की रियासत जगदीशपुर के लिए कूच कर गई।
सोन नद को पार भोजपुर जिले के बाबू के जगदीशपुर जा पहुंचे।जहां जाति, धर्म, ऊंच-नीच के कोई भेद नहीं थे।इस रियासत ने अपने जमाने में कई उतार चढ़ाव देखे हैं, लेकिन 80 बरस के इस योद्दा ने अपने 9 माह में देश के विभिन्न हिस्सों में हुए 15 युद्धों में कभी भी हार का मुंह नहीं देखा। कुंवर सिंह के पूर्वज मालवा के प्रसिद्ध शासक महाराजा भोज के वंशज थे। कुंवर सिंह के पास एक बड़ी जागीर हुआ करती थी….लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी की हड़प नीति का आगे चलकर शिकार हो गई।
कुंवर ने अंग्रेजों के खिलाफ मचायी जब रारः
देश गुलामी के दंश को झेल रहा था। कुंवर सिंह अपनी रियासत में बहुत खुश थे….इनकी जिंदगी में आयी धरमन बीबी जैसी नर्तकी ने अपनी गायकी से इतना प्रेरित किया कि….बाबु साहब भी 80 वर्ष की उम्र में विद्रोही हो गए थे।बांध लिया सर पर कफन, निकल पड़े अपनी गंवई सेना और दानापुर छावनी के विद्रोही सैनिकों के साथआगे की लड़ाई लड़ने के लिए।चारो तरफ ये आवाज गुंजने लगी थी। उस बूढ़े शेर के अंदर 18 वर्ष का युवा नजर आने लगा था। इस युद्ध की शुरुआत में कुंवर सिंह के साथ धरमन बीबी और उनके पोते रिपुभंजन सिंह स्ट्रेटजी के साथ गोरिल्ला युद्ध को अपनाते हुए आगे बढ़ते रहे…..”कुंवर सिंह ने जगदीशपुर से आगे बढ़कर गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़ आदि जनपदों में छापामार युद्ध करके अंग्रेजो को खूब छकाया। वे युद्ध अभियान में बांदा, रीवां तथा कानपुर भी गये, यहां नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और बेगम हजरत महल जैसे शूरवीरों का भी साथ दिया। इसी बीच अंग्रेजो को इंग्लैंड से नयी सहायता प्राप्त हुईऔर कुछ रियासतों के शासको ने अंग्रेजो का साथ दे दिया।
जब अपने ही हाथ को काटकर किया गंगा को सुपुर्दः
युद्ध करते-करते 9 माह गुजर चुके थे। 15 युद्धों पर बाबू साहब ने विजय हासिल की, मगर इस विजय में धरमन औऱ करमन के अलावे रिपुभंजन जैसे योद्धा को बाबू साहब ने खो दिया।इन्हें खोने के बाद बाबू साहब भी थक चुके थे। उनको अपनी मिट्टी की याद आने लगी थी। जैसे ही इनके लौटने की खबर अंग्रेजों को मिलीआरा को पुनः कब्जे में ले लिया। अपनी बची टूकड़ियों के साथ बाबू साहब शिवपुर के पास गंगा पार करने लगे। अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई। उनलोगों ने हमला कर दिया। बाबु साहब की बांह में गोली लग गई, फिर क्या उस रणबाकुंरे ने अपनी हाथ तलवार से काटकर उसी क्षण गंगा मईया को भेंट चढ़ा दिया।कटे हाथ के साथ ही अपनी हिम्मत के बूते आरा को 23 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त करा लिया। युद्ध में जीत तो हो गई, मगर कटे हाथ में जहर पूरी तरह से फैल चुकी थी। इसी का नतीजा रहा कि26 अप्रैल 1858 को महान शुरवीर वीर कुंवर सिंह हमेशा हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गए, रह गई तो उनकी कीर्तियां और उनकी यादें….
(लेखक ने वीर कुंवर सिंह की प्रेमकथा पुस्तक और नाटक की रचना की है )