शिक्षा का बाजारीकरण बन्द होना चाहिए

आलेख

  • मनोज कुमार श्रीवास्तव

आज भारत की शिक्षा एक बड़े संकट से गुजर रही है।20 करोड़ बच्चों ने पढ़ाई के अपने दो साल कोरोना के कारण गवां दिये हैं। वाकई हमारी शिक्षा व्यवस्था बिगड़ गई है।बच्चे वह नहीं सिख रहे हैं,जो उनको सीखना चाहिए।भौगोलिक,सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के कारण शिक्षा की पहुंच समान नहीं है।यही कारण है कि क्षमताओं और मूल्यों के हर उस आयाम पर बच्चों को की समझ पिछड़ रही है,जिनको हम शिक्षा से विकसित करना चाहते हैं।

      बच्चे हमारे देश के भविष्य हैं और इससे कहीं बेहतर पाने की योग्यता रखते हैं।बुनियादी साक्षरता और गणित विषयों की वास्तविक समझ ,सोंच व रचनात्मक जैसी गहरी समझ,मानवीय मूल्य जैसे चीजें विकसित नहीं हो पा रही।दुर्भाग्य ही है कि अभी तकु उच्च शिक्षा स्कूली शिक्षा से भी बदतर स्थिति में है।15 वर्षों के सबक को हमे नहीं भूलना चाहिए।भारत की शिक्षा समस्याओं के समाधान के रूप में बताई गई तीन चीजों को उनकी घोर विफलताओं के कारण अब

किनारे कर देना चाहिए। निजी स्कूलों का प्रसार मदद

नहीं करता है, वे सरकारी स्कूलों की तुलना में बेहतर

शिक्षा नहीं बांटते हैं। पिछले 15 वर्षों में निजी स्कूलों में दाखिले में भारी वृद्धि ने भारतीय शिक्षा में थोड़ा भी सुधार नहीं किया है।तकनीक के माध्यम से शिक्षा फिलहाल प्रभावी नहीं है।यह कल्पना बेमानी है कि

तकनीक शिक्षा की गड़बड़ियों को दुरुस्त कर देगी। और तीसरी ,बार-बार जांच करना फायदेमंद नहीं है।

     राष्ट्रीय शिक्षा नीति,2020 (एनईपी)भारतीय शिक्षा

में सुधार का एक रोड- मैप है।यह वाकई में एक कुंजी

है।दस वर्षों के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर इस दिशा में निरंतर काम करने की आवश्यकता है।इसकी आलोचना से बचना होगा। बेहतर शिक्षा के लिए सबसे अच्छा मौका एनईपी को सही अर्थों में अमल में लाना होगा।कोरोना महामारी ने

शिक्षा व्यवस्था की जो रीढ़ तोड़ी है,उसमें नई शिक्षा नीति कुछ आस बंधाती है लेकिन इसके क्रियान्वयन

हेतु केंद्र और राज्य सरकारें गम्भीर नहीं नजर आती ।

नेता केवल स्टार प्रचारक की भूमिका निभाना अपना

कर्तव्य समझते हैं चाहे वह चुनाव हो या शिक्षा का क्षेत्र।देश में ईमानदार और मेहनती शिक्षकों का एक वर्ग है जो उम्मीद जगाता है।शिक्षा को यदि सही मायने में औचित्यपूर्ण बनाना है तो बाजारीकरण को रोकना होगा।बाजार पैसा बना सकता है मगर शिक्षा नहीं दे सकता।शिक्षा के क्षेत्र में पूंजीवाद के दखल इसके उद्देश्य को सीमित कर देगा।

    शिक्षा के बाजारीकरण होने से आर्थिक रूप से कमजोर अभिभावक के लिए बच्चों को शिक्षित करना मुश्किल होते जा रहा है।शिक्षा कभी भी व्यापार या निजीकरण या पैसा कमाने का जरिया नहीं होना चाहिए।शिक्षा बेचने की वस्तु नहीं है, भारतीय संविधान में शिक्षा प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है।यदि इस तरह शिक्षा का बाजारीकरण बढ़ता गया तो एक दिन गरीब,मजदूर किसान, दलित,कमजोर जनजातियों और लड़कियां शिक्षा से वंचित रह जायेंगे।

      भारत में लगभग 50 % से ज्यादा आबादी के छात्र आज की शिक्षा अध्ययन में लग रही राशि देने में सक्षम नहीं हैं।फिर देश का विश्वगुरु बनने का सपना कभी पूरा नहीं होगा।सरकार पैसे के जरिए गरीब छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के रास्ते बंद कर रही है।सरकार गरीब छात्रों को पढ़ना नहीं देना चाहती है, उन्हें अंधभक्त बनाना चाहती है।

      जब से देश में शिक्षा का बाजारीकरण हुआ है तब से शिक्षा का स्तर गिरा है।प्रशासन रिश्वत की बदौलत उन शिक्षण संस्थाओं को भी मान्यता दे रहा है जो गुणवत्ता के मानक पर पिछड़े हुए हैं।शिक्षा कोचिंग पर निर्भर हो गया है।इसका प्रभाव बच्चों के विकास पर पड़ रहा है।कोचिंग अंक बढ़ाने का जरिया है, इसमें छात्र का समग्र विकास नहीं होता।बच्चों में सवाल पूछने की प्रवृत्ति कम हो रही है।जिनके पास धन,सम्पति और संसाधन है वे अच्छी कोचिंग करते हैं लेकिन जो समर्थ नहीं हैं वे लाभ नहीं उठा पाते।

       शिक्षा के बाजारीकरण पर राजनीतिक विमर्श नहीं होता।आज देश का कोई विश्वविद्यालय अंतराष्ट्रीय मूल्यांकन के 100 स्थानों में जगह नहीं बना पाया।विश्वविद्यालय स्तर पर जब शोध और विमर्श होता था तो उसका दूरगामी प्रभाव पड़ता था।जब देश स्वतन्त्र हुआ था तब 20 विश्वविद्यालय और 50 कॉलेज थे।वर्तमान में 1000 से अधिक विश्वविद्यालय और करीब 40,000 से अधिक कॉलेज है।संख्या की दृष्टि से उच्च शिक्षा में विकास होता दिखता है लेकिन गुणवत्ता के मानकों पर यह दुनिया के अनेक देशों के मुकाबले पीछे है।

     असल में राजनीतिक लाभ लेने की आड़ में बेतुके कॉलेज खुलने से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई है।भारत की नई शिक्षा नीति बेहतर होने के साथ उच्च शिक्षा संस्थानों के पुनर्गठन और एकत्रीकरण की सिफारिश करती है।ऑनलाइन शिक्षण का लाभ उन छात्रों को ही मिल है जो सर्वसम्पन्न और टेक्नोफ्रेंडली हैं और जिनके अभिभावक मोबाईल और इंटरनेट का खर्चा वहन करने की स्थिति में है।इससे उच्च शिक्षा से जुड़ी बुनियादी संरचना की कमजोरियां  सतह पर आयी है।

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