(हैप्पी फादर्स-डे)
अक्सर ग्रामीण परिवेश में शाम के समय दालान में बुजुर्गों की बैठकी लगती है। मेरे घर पर भी प्रतिदिन बैठकी लगती थी। इसमें हमारा काम चाय-पानी पिलाने का था और दादा जी के मित्रों के लिए बाजार से पान लाकर खिलाना था। अब मैं बड़ा हो चला था, समझ भी अब परिपक्वता की तरफ अग्रसर थी। लेकिन खेलने और अपनी मस्ती के आगे पढ़ाई प्रभावित होती थी। उस वक्त इसका बहुत एहसास नहीं होता था, लगता था कि सभी पढ़ने के लिए कहकर जिंदगी को बोझिल बना रहे हैं।
एकदिन बड़े से ट्रे में चाय लेकर सभी के बीच बढ़ा रहा था। उस वक्त पढ़ाई और बंटवारा जैसे शब्द मेरे कान में सुनाई पड़े, तो मैं भी सुनने लगा। पिता जी ने कहा-देखिए भाई मेरा मानना है कि दुनिया में हर मां-बाप अपने बच्चे को पढ़ाकर काबिल बनाना चाहता है। इसमें दोनों के स्वार्थ निहित होते हैं। बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, पिता भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। आगे उन्होंने कहा कोई भी पिता अपनी जायदाद में अपने बच्चों के बीच बराबर बंटवारा कर सकता है। मगर बच्चों की शिक्षा में कोई बंटवारा नहीं किया जा सकता है। इसलिए बच्चों को जब समय मिले पूरी पढ़ाई कर लेनी चाहिए, उसके लिए सबसे कीमती जायदाद यही होती है।
यह बात मेरे दिल को छू गई। जिस बात को पिताजी-मां वर्षों समझाते रहे, वो आज समझ में आयी। जो बातें हमने सुनी, मेरे जीवन की कठिन राहें आसान हो गईं। पढ़ाई से जी चुराने वाला मैं, फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज की ताऱीख में मेरी लेखनी ही मेरी पहचान बन गई। अब मेरे से ज्यादा मेरे पिता जी और मां हम पर गौरवान्वित महसूस करते हैं। आज जो कुछ भी हूं अपने पिता जी (डॉ.शशि भूषण श्रीवास्तव) की वजह से हूं। रेलवे अधिकारी दानापुर से अवकाश प्राप्त पिता जी ने मुझे ईमानदारी के साथ-साथ कुछ अलग करने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहे आज उन्हीं की सीख का नतीजा है कि मैं अपने लेखनी को धार दे सका हूं।