-मुरली मनोहर श्रीवास्तव
- देश में जैविक खेती को मिल रहा है बढ़ावाः आर.के. सिन्हा
- जैविक खेती से मृदा की सुधरती है सेहत
- परंपरागत कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहन की है जरुरत
- हर साल 15 लाख करोड़ के उर्वरक का होता है आयात
संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है। कुछ ऐसे ही विषय पर प्राकृतिक खेती के प्रणेता सह जैविक मैन आर.के.सिन्हा अक्सर लोगों के बीच प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वहीं बताते हैं कि देश की जो धरती है, वो बहुत तेजी से बंजर होती जा रही है और जितने प्रकार की बिमारियां हैं-डायबिटिज, बल्ड प्रेशर, हर्ट से जुड़ी बीमारी, दिमाग से जुड़ी बीमारी, कैंसर, किडनी, लीवर फेल्योर जैसी बीमारी खान पान की वजह से हो रही है। खान पान में प्रदूषण पैदा कर रहा है रासायनिक खाद और रासायनिक कीटनाशक। इसलिए हमें पुनः वापस मूल पर लौटना होगा। गाय रखना होगा, बछड़े अगर बैल होते हैं और बैलगाड़ी नहीं चलाते हों तो उनको गौ मूत्र और गोबर से भरपूर मात्रा में कीटनाशक और उर्वरक तैयार हो जाएगा, जिससे खेती को समृद्ध बनाया जा सकता है और किसी प्रकार की किसानी करने में परेशानी नहीं होगी। गोबर पर आधारित उर्वरक और कीटनाशक पर ध्यान देने के लिए और काम करने के लिए आर्गेनिक मैन आर के सिन्हा कहते रहते हैं।
जिस रास्ते को हमने रास्ते को खराब कर दिया है तो एक दिन में किसी भी चीज को रोका नहीं जा सकता है, इतना तो तय है। लेकिन 15 लाख करोड़ रुपए का उर्वरक और कीटनाशक हर साल आयात कर रहे हैं। आर के सिन्हा ने आगे कहा कि अगर हम सिद्ध कर लें कि इनके रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की बराबरी की शक्ति हमारे गाय के गोबर, गोमूत्र और हमारे वनस्पतियों में है तो यह समझने का विषय है कि 15 लाख करोड़ का जो उर्वरक और कीटनाशक का आयात होता है उस पर रोक लगेगी। इतना ही नहीं लगभग 50 लाख लोगों को अपने ही गांव में रोजगार भी उपलब्ध हो जाएगा। पंचगव्य की महता पुरातन काल से रही है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति आने के बाद इसे गौण माना जाता है। इस पर श्री सिन्हा ने कहा आयुर्वेद और यूनानी में गोमूत्र, गोबर, गाय के घी, दही और वनस्पतियों का उपयोग किया जा रहा है।
प्राचीन काल में मानव स्वास्थ्य के अनुकुल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी, जिससे जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान का चक्र निरन्तर चलता रहा था, जिसके फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था। भारत वर्ष में प्राचीन काल से कृषि के साथ-साथ गौ पालन किया जाता था, जिसके प्रमाण हमारे ग्रंथों में प्रभु कृष्ण और बलराम हैं जिन्हें हम गोपाल एवं हलधर के नाम से संबोधित करते हैं अर्थात कृषि एवं गोपालन संयुक्त रूप से अत्याधिक लाभदायी था, जोकि प्राणी मात्र व वातावरण के लिए अत्यन्त उपयोगी था। परन्तु बदलते परिवेश में गोपालन धीरे-धीरे कम हो गया तथा कृषि में तरह-तरह की रसायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है जिसके फलस्वरूप जैविक और अजैविक पदार्थो के चक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है और वातावरण प्रदूषित होकर, मानव जाति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। अब हम रसायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के उपयोग के स्थान पर, जैविक खादों एवं दवाईयों का उपयोग कर, अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं जिससे भूमि, जल एवं वातावरण शुद्ध रहेगा और मनुष्य एवं प्रत्येक जीवधारी स्वस्थ रहेंगे।