– मनोज कुमार श्रीवास्तव
अब यह समझने का समय आ गया है कि न्याय पालिका और कार्यपालिका यह समझे कि न्याय में देरी होना अन्याय है और इसी के चलते अब जनता का धैर्य जबाब देने लगा है।कार्यपालिका और न्यायपालिका एकमत होकर अपनी-अपनी जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हैं।कभी-कभी तो यह भी देखने में आता है कि यदि एक पक्ष पहल करे तो दूसरा पक्ष कोई सकारात्मक रवैया नहीं अपनाता।यह चिंतनीय विषय है कि ऐसी परिस्थिति में कैसे काम होगा।जनता की भलाई तभी होगी जब दोनों पक्ष एकजुट होकर न्यायिक सुधारों को आगे बढ़ाए।केवल चिंता जताने या समस्या का उल्लेख करने से कुछ हासिल नहीं होगा।
राज्य के नीति-निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 50 में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखने का निर्देश दिया गया है ताकि उसकी स्वतंत्रता बनी रहे जो संविधान के रखवाले की उसकी भूमिका के लिए आवश्यक है।पिछले सात दशकों में भारतीय राजनीति और नौकरशाही ने लगातार जिस तरह से आम जनता के भरोसे को ठेस पहुँचाई है उसके बाद उसका भरोसा सिर्फ न्यायपालिका हैं बचा है।न्यायपालिका उस भरोसे की रक्षा तभी कर सकती है जब तक निष्पक्ष होकर स्थापित परम्पराओं का निर्वाह करते हुए अपनी जिम्मेदारी को अंजाम दे और कार्यपालिका से अपने को दूर रखें।
कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कहा है कि यदि कोई न्यायाधीश 50 मामलों का निपटारा करते हैं तो 100 मुकदमे दायर किये जाते हैं।जनता पहले से अधिक जागरूक हो गई है और विवादों को निपटाने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हैं।देश में लंबित मामलों की संख्या 5 करोड़ के आसपास पहुंच गई है।संसद के मानसून सत्र में कानूनमंत्री ने बताया था कि देशभर के अदालतों में 4.83 करोड़ मुकदमें लंबित हैं।इनमें से 4 करोड़ से अधिक निचली अदालतों में लंबित हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट में 72,000 लंबित मामलों का बोझ है।
कानूनमंत्री रिजिजू ने यह भी कहा है कि मध्यस्थता पर प्रस्तावित कानून से अदालतों में मुकदमों की संख्या घटेगी।इसके अलावे इस कानून में विवाद सुलझाने के वैकल्पिक तंत्र पर भी ध्यान दिया गया है।भारत और अन्य देशों में लंबित मुकदमों को लेकर कोई तुलना नहीं होनी चाहिए क्योंकि हमारी समस्याएं दूसरों से भिन्न है।दुनिया में कई ऐसे देश हैं जिनकी आबादी भी 5 करोड़ नहीं है।भारत में लंबित मामलों की संख्या ही 5 करोड़ के आसपास पहुंच गई है।कानून मंत्रालय शीघ्र न्याय देने में सशस्त्र बल न्यायाधिकरण को हर तरीके से मदद करेगा।ये बातें आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल विषय पर आयोजित नेशनल सेमिनार के दौरान कहा था।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ नें कहा है कि देश की अदालतों पर बहुत ज्यादा बोझ है।लंबित मामलों की संख्या को देखते हुए मध्यस्थता जैसे विवाद निवारण तंत्र का महत्व बढ़ गया है।देश के अदालतों के समक्ष मुकदमों का अंबार लगा है।साल 2010 से 2020 के बीच लंबित मुकदमों की संख्या में हर साल 2.8 % की वृद्धि हुई है।पिछले दो सालों में महामारी और उससे उत्पन्न समस्याओं के चलते स्तिथि और खराब हो गई है।लंबित मुकदमों संख्या को देखते हुए मध्यस्थता न्याय दिलाने का महत्वपूर्ण माध्यम हो सकता है।ये बातें स्मृति व्याख्यान को सम्बोधित करते हुए पुणे में कहा था।
विजयवाड़ा कोर्ट परिसर का उदघाटन करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रमन्ना ने कहा था कि विभिन्न अदालतों में लंबित पड़े मामले न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।लंबित होने कई कारण
हैं।मामलों की जल्द सुनवाई और त्वरित न्याय सुनिश्चित करना जजों के साथ हीं वकीलों की भी जिम्मेदारी है।उन्होंने यह भी कहा था कि अगर लोगो का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ गया तो लोकतंत्र का अस्तित्व दांव पर लग जायेगा।इसलिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि लोगों का न्यायपालिका पर भरोसा बना रहे,उनका भरोसा टूटे नहीं।
यदि लोगों का न्यायपालिका पर भरोसा टुट जाता है और न्यायपालिका ध्वस्त हो जाती है तो लोकतंत्र का बना रहना भी मुश्किल हो जायेगा।जब तक न्यायिक तंत्र में ठोस सुधार करके तारीख पर तारीख के सिलसिले को खत्म नहीं किया जाता तबतक बात बननेवाली नहीं है।यह निराशाजनक है कि न्यायिक तंत्र में व्यापक सुधार कर मुकदमों के शीघ्र निस्तारण की आवश्यकता पर बातें तो खूब की जाती है लेकिन उसे पूरा करने के लिए जैसा कदम उठाना चाहिए वैसा होता नहीं है।
विरोध करने और अभिव्यक्ति के अधिकार का जिस तरह से गला घोंट जा रहा है वह एक प्रकार का दमन है ।जिसकी कमान कार्यपालिका सम्भाली हुई है और न्यायपालिका या तो प्रत्यक्ष तौर पर कार्यपालिका से सहमति जता रही है या इस मुद्दे को लेकर चुप्पी साधे हुए है।आखिर राजनीतिक सत्ता और पुलिस में इतना साहस कहाँ से आ गया है।इसमें कोई शक नहीं कि यह वर्तमान कमजोर न्यायपालिका के कारण है।निश्चित तौर पर विरोधी विचारों को चुप कराने और वैकल्पिक नजरिए पर लगाम लगाने के लिए सरकार अपने तरकश में मौजूद तीर चला रही है।
(राजनीतिक संपादक, द इंक)