मित्रता निभाना कोई आर के सिन्हा से सीखे

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मित्रता निभाना कोई आर के सिन्हा से सीखे, आज़ की परिस्थितियों में ऐसे नेता और उनके सहयोगियों का अभाव बहुत ही खटकता है:

जयप्रकाश नारायण कहा करते थे कि ‘‘मित्रता निभाना कोई बाबू साहब (यानी डा.अनुग्रह नारायण सिंह)से सीखे।’’
आज के ‘अर्थ युग’ में भी मेरा यह अनुभव रहा है कि मित्रता निभाना कोई (मेरे लिए चर्चित पत्रकार रवीन्द्र किशोर और राजनीतिक हलकों के लिए ) पूर्व राज्य सभा सदस्य आर.के.सिन्हा से सीखे। पैसे तो बहुत लोगों के पास आते -जाते रहते हैं। किंतु मैं देखता हूं कि आर.के.सिन्हा मित्रों के लिए व समाज के लिए भी समय,भावना और पैसों का सदुपयोग करते रहते हैं।
यानी,तन-मन-धन से मित्रता निभाते हैं। जिस बात की अभी मैं चर्चा करने जा रहा हूं,उसमें मित्रता निभाने वाली भावना का तत्व ही प्रमुख है।
सभी प्रतिष्ठित अखबारों की एक खबर का शीर्षक है-
‘‘पूर्व सांसद लालमुनि चैबे की बेटी की शादी,आरके सिन्हा ने किया कन्यादान।’’ एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लिखा है की दिवंगत चैबे जी को मैं सन 1972 से जानता रहा । तब वे पहली बार जनसंघ के विधायक बन कर पटना आए थे। बाद के वर्षों में मैं भी चैबे जी के पास यदाकदा बैठा करता था।
पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित उनके सरकारी आवास में पूर्व मुख्य मंत्री अब्दुल गफूर से लेकर एक से एक बड़े पत्रकार व नेता आते रहते थे। चौबे जी ने पूरा जीवन एक ईमानदार राजनीतिक नेता की तरह जिया।

सन् 1978 ई. में तब विधायक के रूप में लालमुनि चौबे जी राजकीय परिसदन के निकट विधायक क्वार्टर में रहते थे।शाम का समय था , मैं जयप्रकाश पथ स्थित रवींद्र किशोर सिन्हा के कार्यालय में कार्यवश पहुँचा हुआ था। जाते समय उन्होंने एक लिफाफा थमाया और अनुरोध किया कि इस लिफाफे को सुरक्षित विधायक जी के आवास पर जाकर पहुँचा दूँ। मुझे भी उसी मार्ग से पटना जंक्शन जाना था। निजता की सुविधा के लिए मुझे ऐसा अनुरोध किया था। होली त्यौहार की शुरुआत थी। विधायक जी के आवास पर भजन संध्या का नियमित आयोजन किया जाता था। मैं जब पहुँचा , तो संकोचवश बाहर ही खड़ा रहा। उन्होंने आवाज़ देते हुए कहा कि अंदर आ जाएं। मैंने लिफाफे को सुरक्षित उन्हें देते हुए कहा कि रवींद्र किशोर जी ने आपको देने के लिए कहा था।वे निश्च्छल मुस्कान के साथ हँसते हुए उस लिफाफे को खोलकर देखा और कहने लगें कि यह काफ़ी है। खर्च से अधिक रूपए भेजें हैं।
मैं चुपचाप लौट आया और कुछ दिन बाद इस प्रसंग को रवींद्र किशोर जी को स्मरण दिलाते हुए सबकुछ बताया। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा, ” संत नेता हैं, उन्हें रुपए की आवश्यकता थी और मैं भांप लिया था।वे किसी से भी कुछ कहते नहीं हैं।” बाद में, उन्होंने जब स्वास्थ्य मंत्री पद संभाला,तब भी उनकी जीवनशैली में बदलाव नहीं हुआ और न रवींद्र किशोर जी का परस्पर अंतर्निहित व्यवहार में कुछ भी बदलाव आया। आज़ की परिस्थितियों में ऐसे नेता और उनके सहयोगियों का अभाव बहुत ही खटकता है।

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