कभी दुनिया मे उच्च शिक्षा का बड़ा केंद्र था बिहार,आज पलायन कर दूसरे राज्यों में जा रहे बिहारी छात्र

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मील का पत्थर बनेगा राज्यपाल का प्रयास लेकिन शिक्षा विभाग को भी बन्द करना होगा बेवजह हस्तक्षेप


डॉ. सुरेन्द्र सागर,पटना(बिहार)
प्राचीन काल से ही बिहार समूचे विश्व में शिक्षा के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में सुविख्यात रहा है। नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों में पढ़ना सौभाग्य की बात समझी जाती थी। यहाँ तक कि आज़ादी के बाद अस्सी के दशक तक बिहार के उच्च शिक्षण संस्थान अपनी गुणवत्ता के लिए जाने जाते थे। लेकिन नब्बे के दशक में विभिन्न राजनीतिक और गैर  राजनीतिक कारणों से उच्च शिक्षा में जो गिरावट का दौर शुरू हुआ, वह अभी भी जारी है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर एक सरसरी निगाह डालने भर से इससे जुड़ी अनेक समस्याएं नजर आने लगती हैं। इस संबंध में सरकारी कॉलेजों-विश्वविद्यालयों की वर्तमान स्थिति की बात करें तो ये सहज स्पष्ट है कि कहीं भी स्नातक के सत्र सही गति से नहीं चल रहे। इक्का-दुक्का विश्वविद्यालयों को छोड़ दें तो बिहार में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को ग्रेजुएट होने में ही चार-पांच वर्ष लग जाते हैं। विलंब से सत्र का चलना एक आम समस्या है, जिसके कारण अच्छे विद्यार्थी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा की चाहत लिए दूसरे राज्यों में पलायन करने को विवश हैं। इस वजह से जहाँ एक तरफ कॉलेजों-विश्वविद्यालयों को होनहार छात्र-छात्राओं से हाथ धोना पड़ता है, वहीं राज्य को भी अनेक नुकसान उठाने पड़ते हैं।
राजस्व का नुकसान और ब्रेन ड्रेन –
राज्य को होने वाला सबसे बड़ा नुकसान राजस्व का है। अगर वे किशोर-युवा बिहार में रहकर यानी अपने शहर, जिला मुख्यालय या राजधानी पटना में रह कर पढ़ाई करते  तो वे जिस किराये के मकान में रहते, जहाँ से अपनी जरूरत की चीजें लेते, जिस मेस में खाते, जिन शिक्षण संस्थानों में फीस  देते, उनसे राज्य को अप्रत्यक्ष करों का सीधा लाभ मिलता। वर्षो से आईआईटियन बनने का सपना लिए बड़ी तादाद में बिहार के बच्चे कोटा जैसे शहरों का रुख कर रहे हैं और अपने माता-पिता की गाढ़ी कमाई खर्च कर वहाँ की अर्थव्यवस्था को मजबूती दे रहे हैं। राजस्थान के इस शहर के अलावा कई अन्य राज्यों को भी इस पलायन का लाभ मिल रहा है। लेकिन इसके बावजूद बिहार में कोई प्रयागराज, कोई मुखर्जी नगर, कोई कोटा बनाने की कोशिश नहीं हुई। सनद रहे कि कोविड महामारी के दौरान लॉक-डाउन काल में मोतिहारी में जो पहली ट्रेन प्रवासियों को लेकर लौटी थी, उसमें आने वाले कोई और नहीं बल्कि कोटा में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं ही थे। कुल मिलाकर, इंजीनियरिंग, मेडिकल या यूपीएससी की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के साथ ये राजस्व और अवसर भी बाहर जाता रहा।
इसके अलावा दूसरा बड़ा नुकसान ‘ब्रेन ड्रेन अथवा ह्यूमन कैपिटल  फ्लाइट ’ यानी नौकरी के बेहतर अवसर और आर्थिक संभावना के मद्देनज़र उन्नत ज्ञान, कौशल और योग्यता वाले व्यक्ति का दूसरे राज्यों में पलायन करना है। पिछले डेढ़-दो दशक से बारहवीं के बाद प्रतिभाशाली बच्चे ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए दिल्ली और दूसरे शहरों के कॉलेज और यूनिवर्सिटी को बेहतर विकल्प के तौर पर देखने लगे हैं। कारण स्पष्ट हैं- सेशन की लेट – लतीफी , नियमित क्लासेज़ का न होना और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव। यही बच्चे बीए,बीएससी,बीकॉम करने के बाद आगे की पढ़ाई करके न सिर्फ  रिसर्च फील्ड में अपना करियर बना रहे हैं, बल्कि देश की सबसे कठिन यूपीएससी परीक्षा में भी परचम लहरा रहे हैं। बात-बात पर “बिहार से सबसे ज़्यादा आईएएस-आईपीएस होता है” का दंभ भरने वाले ये भूल जाते हैं कि इस सफलता के पीछे इनकी अपनी मेहनत और बिहार के बाहर के शिक्षण संस्थानों का हाथ है।  
उच्च शिक्षा में सुधार की पहल –            
गौरतलब है कि दशकों से समस्याग्रस्त उच्च शिक्षा व्यवस्था में समुचित सुधार हेतु महामहिम राज्यपाल राजेन्द्र विश्वनाथ  आर्लेकर के नेतृत्व में गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। सर्वप्रथम नई शिक्षा नीति 2020 के तहत राज्य में 4 वर्षीय स्नातक कोर्स को लागू किया गया है। इसी कड़ी में राजभवन के सक्रिय निर्देशन में राज्य भर के चुनिंदा 150 शिक्षाविदों द्वारा युद्ध स्तर पर काम करते हुए पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। इसी प्रकार  विश्वविद्यालयों द्वारा सुचारू रूप से सीनेट की बैठक आहुत करना एवं शीघ्रातिशीघ्र फैसले लेना सुनिश्चित किया गया है। ऐसा पहली बार हुआ है कि राज्यपाल सीनेट की सभी बैठकों में स्वयं शामिल हुए हैं। महामहिम की इस पहल की सराहना करते हुए विधानमंडल द्वारा अभिनन्दन प्रस्ताव भी पारित किया गया। साथ ही  उनके प्रयासों की बदौलत भारतीय ज्ञान परंपरा से संबंधित विभिन्न विषयों पर सेमिनार आदि का नियमित रूप से आयोजन किया जा रहा है। इससे भी बढ़कर बतौर चांसलर प्रोफेसर से लेकर छात्र-छात्राओं एवं विश्वविद्यालीय कर्मचारियों के लिए उनकी सहज सुलभता ने नेतृत्व के प्रति विश्वास का संचार किया है।  
शिक्षा विभाग का तानाशाही रवैया सुधार की राह में रोड़ा –       
दुर्भाग्यवश राजभवन के प्रयासों को राज्य सरकार का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है। मसलन   शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के के पाठक ने शुरूआत में 4 वर्षीय स्नातक कोर्स का विरोध किया था लेकिन राजभवन ने छात्र हित में इसे लागू करने पर जोर दिया और अंततः सरकार को  राजी होना पड़ा। इसी प्रकार  शिक्षा विभाग द्वारा इसी साल फरवरी  और मार्च में विश्वविद्यालयों का बैंक अकाउंट फ्रीज़ करने जैसे मनमाने  फैसले से शैक्षणिक और गैर  शैक्षणिक पदाधिकारियों व कर्मचारियों को महीनों वेतन नसीब नहीं हुआ। कुलपतियों तक का वेतन रोकने का आदेश भी जारी किया गया। पटना हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ये तुगलकी फैसले वापस लिए गए और अदालत ने बैठकें करके सभी मुद्दों को सुलझाने का आदेश भी दिया था। लेकिन इस वजह से दो महीने से ज्यादा  समय के लिए शैक्षणिक तथा अन्य विश्वविद्यालीय गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुईं।
कोर्ट के आदेश के आलोक में राजभवन द्वारा तीन-तीन बैठकें आहुत की गईं जिनमें अदालती मामलों के निपटारे, वार्षिक बजट, परीक्षाओं की स्थिति, विश्वविद्यालयों के पास उपलब्ध संसाधनों, इत्यादि पर चर्चा होनी थी। लेकिन तीनों बैठकों से अपर मुख्य सचिव का नदारद रहना राजनीतिक नेतृत्व द्वारा पूरी तरह नौकरशाही के सामने घुटने टेक देने की ओर इशारा करता है। विधानसभा में मुख्यमंत्री शिक्षा व्यवस्था को लेकर कुछ घोषणा करते हैं  लेकिन शिक्षा विभाग उसका पालन नहीं करता। यहाँ तक कि उनकी अपने विभाग के पूर्व शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर से भी तनातनी सुर्खियां  बटोरती रही और उन्हें अपना पड़ भी गंवाना पड़ा था। यह वाकई  दिलचस्प है कि बिहार में बीते 4 महीने में चार शिक्षा मंत्री बदले गए हैं लेकिन के के पाठक अंगद के पाँव की तरह जमे हुए हैं। इसका सीधा मतलब हुआ कि के के पाठक को राज्य के मुखिया का मौन समर्थन हासिल है। 
जहाँ फेडरेशन  ऑफ़ यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन ऑफ  बिहार जैसे शिक्षक संगठन अदालती आदेश का स्वागत करते दिखे, वहीं राज्यपाल की अध्यक्षता में राजभवन में आयोजित बैठक से के के पाठक का दूर रहना ये स्पष्ट कर गया कि राजभवन और नौकरशाही के बीच सबकुछ ठीक तो नहीं चल रहा है। शिक्षक संगठन भी अकादमिक कैलेंडर को दुरुस्त करने, परीक्षाओं को समय से करवाने जैसी मांगें उठाते रहे हैं। लेकिन के के पाठक के अड़ियल रवैये की वजह से सुधार के प्रयासों को बार-बार ब्रेक लग रहा है जिसका सबसे ज़्यादा खामियाजा गरीब  और वंचित वर्ग के उन छात्र-छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है, जो आर्थिक-सामाजिक कारणों से बिहार के बाहर शिक्षा लेने में सक्षम नहीं हैं।
कहने को तो पूर्व शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी कह चुके हैं कि जो मुद्दे उभरते हैं उन्हें बातचीत से सुलझा लिया जायेगा और छात्र-छात्राओं का नुकसान नहीं होने दिया जायेगा। मगर वास्तविकता कुछ और ही है। राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच क्या चल रहा था ये उनके उस बयान से पता चलता है जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछले शिक्षा मंत्री तो दो महीने तक कार्यालय ही नहीं आये थे इसलिए शिक्षकों की बहाली मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर से हुई थी। विदित हो कि जब 9 फरवरी को शिक्षा विभाग ने  कुलपतियों की बैठक बुलाई थी, तो उसमें  कुलपति नहीं आए थे। अब ऐसी ही बैठक में के के पाठक ने शिरकत नहीं की। महामहिम राज्यपाल जनवरी में ही कह चुके हैं कि शिक्षा विभाग अगर राजभवन के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न करे तो बेहतर होगा। करीब  छह महीने से चल रही इस खींच-तान का पाठ्यक्रम के पूरे होने से लेकर परीक्षाओं के समय पर आयोजित होने तक पर असर होगा जिसका दुष्प्रभाव विभाग अथवा शिक्षकों की बज़ाए छात्र-छात्राओं पर ही पड़ेगा। बिहार आर्थिक सर्वेक्षण 2023-2024 के अनुसार  बिहार की कुल जनसंख्या में पच्चीस वर्ष से कम आयु वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी 50  फीसदी  है। इस नाते  बिहार देश का सबसे युवा राज्य है। लेकिन इस युवा पीढ़ी की शिक्षा-दीक्षा को लेकर सरकार की असंवेदनशीलता सचमुच परेशान करने वाली है।
परस्पर सहयोग से निकलेगा रास्ता –
जहां के के पाठक द्वारा स्कूली शिक्षा में सुधार को लेकर किए गए प्रयासों को एक बड़े वर्ग से सराहना मिली है  वहीं उच्च शिक्षा में सुधार को लेकर राजभवन की प्रतिबद्धता में रोड़े अटकाने से उनकी छवि के साथ-साथ राज्य की साख  भी निश्चित रूप से धूमिल हुई है। इस संदर्भ में राजनीतिक नेतृत्व का अपरिपक्व रवैया तो और भी चिंताजनक है। बेहतर होगा कि अपने गौरवशाली अतीत से प्रेरणा लेकर  राज्य सरकार बिहार के छात्र-छात्राओं और राज्य हित में तानाशाही कार्य संस्कृति और तुगलकी फरमानों की छूट देने के बदले  नौकरशाही को शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए निर्देशित करे। जब राजभवन और शिक्षा विभाग दोनों शिक्षा व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाना चाहते हैं तब टकराव का रास्ता छोड़कर परस्पर सहयोग ही एक मात्र विकल्प है। अगर भारत को पुनः विश्व गुरु बनना है तो बिहार को अपना यथोचित योगदान देना ही होगा।

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