मुरली मनोरहर श्रीवास्तव
आज भी उनकी उतनी ही याद आती है। उनको गुजरे डेढ़ दशक होने को आए मगर उनकी कृतियां आज भी हमारे बीच उनके होने का एहसास कराती हैं। हम बात कर रहे हैं शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब की। डुमरांव की वो गलियां जहां उनका बचपन गुजरा, बांके बिहारी मंदिर जहां शहनाई छूआने की रस्म हुई थी वो आज भी अपने उस लाल की राहें देखती हैं। पर, अब वो अतीत की बातें हो चुकी हैं। जन्मभूमि डुमरांव में उनके नाम पर बहुत सारे वायदे किए गए स्थापित करने के लिए मगर वो सब ढांक के तीन पात साबित हो रहे हैं। यहां तक कि उनके नाम पर जो भूमि थी वो भी बेच दी गई। वहीं दूसरी तरफ कर्मभूमि वाराणसी को बनाया जो आज की तारीख में उनका हड़हासराय स्थिति मकान भी अब ध्वस्त हो गया है। उनकी निशानियों के नाम पर उनके सबसे छोटे बेटे ने कुछ सहेजकर रखा है। मगर अफसोस की आज उनका पुश्तैनी मकान भी सिर्फ कहने को रह गया है।
डुमरांव राजघराने में बिस्मिल्लाह खां साहब के परिजन शहनाई वादन किया करते थे। डुमरांव राज के किले के अंदर बांके बिहार मंदिर में सुबह और शाम को शहनाई वादन करने ड्यूटी हुआ करती थी। इसके एवज में उन्हें डुमरांव राज की तरफ से वेतन का भुगतान किया जाता था तथा प्रतिदिन सवा सेर का एक लड्डू भी मिलता था। बच्चा कमरुद्दीन अपने बड़े भाई शम्मसुद्दीन के साथ मंदिर में लड्डू की लालच में अपने अब्बा के साथ जाया करता था। तब उसे सूर से कोई दरकार नहीं थी। दरकार थी तो बस लजीज लड्डू से। बेटा कमरुद्दीन को पढ़ाई में जी नहीं लगता था सो अब्बा ने शहनाई की तालिम देनी शुरु कर दी। बहुत ही कम उम्र में दोनों भाई शहनाई बजाने लगे। किराए के मकान पर रहने वाले कमरुद्दीन के मां का 10 साल की अवस्था में इंतकाल हो गया।
अब्बा ने दूसरी शादी रचा ली। सौतेली मां एक बालक पंचकौड़ी मियां को साथ लेकर आयीं। जिन्हें शम्सुद्दीन और कमरुद्दीन बहुत मानते थे। सौतेली मां अपने बेटे से कम नहीं मानती थी कमरुद्दीन को मगर कुछ दिनों के बाद बालक कमरुद्दीन अपने मामू अली बख्श का शागिर्द बनकर वाराणसी चला गया। डुमरांव और अपनी अम्मी की याद उसे इतनी सताती थी कि वो उम्र के साथ शहनाई की धून में खुद को इतना रमाया कि लोकवाद्य शहनाई को शास्त्रीय वाद्य की श्रेणी में ले जाकर खड़ा कर दिया। यही नतीजा रहा कि देश के चारो सर्वोच्च अलंकरणों से नवाजे गए तथा दुनिया के 150 देशों में शहनाई वादन कर शहनाई को बुलंदियों तक पहुंचा दिया। महज चौथी तक पढ़े कमरुद्दीन ही आगे चलकर बिस्मिल्लाह खां हो गए और डुमरांव के बांके बिहारी मंदिर में शहनाई वादन करने वाला बालक वाराणसी के बालाजी मंदिर में ताउम्र शहनाई वादन करते रहे। मगर अफसोस की इस महान हस्ती ने बिहार और उत्तर प्रदेश को दुनिया के मानचित्र पर शहनाई वादन से स्थापित तो किया। लेकिन अफसोस कि इन दोनों राज्यों ने उन्हें उचित सम्मान मुनासिब नहीं समझा। जहां देश में जाति, धर्म के विभेद पर आए दिन आपसी मतभेद होते हैं वैसे में बिस्मिल्लाह खां पर गौर करने की जरुरत है पांच समय का नमाजी सच्चा मुसलमान मंदिरों में सुबह-शाम शहनाई वादन किया करता था। वैसे युगद्रष्टा पर जरुरत है उचित नजर-ए-इनायत करने की। पिछले 30 सालों से उस्ताद के ऊपर काम करने का नतीजा रहा कि मुझे इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड से 2022 में नवाजा गया तथा यूके में डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजने के लिए नामित किया गया।