अलविदा राजू श्रीवास्तव, अब सबको कौन हंसायेगा

आलेख

आर.के. सिन्हा

राजू श्रीवास्तव की सेहत को लेकर बीच-बीच में खबरें आने लगीं थीं कि वे कुछ बेहतर हो रहे हैं। उनके स्वास्थ्य में कुछ सुधार हो रहा है। पिछले सप्ताह जब मैं उन्हें देखने एम्स गया था। जब उनकी श्रीमती जी ने आवाज़ लगाई कि “आर. के. भाई साहब आये हैं तो उन्होंने आखें खोलने की असफल चेष्टा भी की थी।“

एक उम्मीद बंधने लगी थी कि वे फिर से ठीक होकर देश को अपने चुटीले व्यंग्यों से हंसानें लगेंगे। पर अफसोस कि राजू श्रीवास्तव नहीं रहे। एम्स जैसे प्रख्यात अस्पताल के डॉक्टर भी उन्हें बचा न सके। कानपुर से मुंबई जाकर अपने फिल्मी करियर को बनाने-संवारने गए राजू श्रीवास्तव ने सफलता को पाने से पहले बहुत पापड़ बेले थे। राजू श्रीवास्तव ने स्टैंड अप कॉमेडियन के रूप में अपनी साफ-सुथरी क़मेडी से करोड़ों लोगों को आनंद के पल दिये हैं। उनके काम में अश्लीलता नहीं थी। वे बेहद गंभीर किस्म के इंसान थे। साफ है कि कॉमेडी करना या व्यंग्य लिखना आपसे गंभीरता की ही मांग करता है। आमतौर पर समझा जाता है कि व्यंग्यकार या कॉमेडियन हंसौड़ किस्म के ही लोग होते होंगे। लेकिन, यह बात सच से बहुत दूर है।

राजू श्रीवास्तव का दिवंगत होना कला जगत की अपूरणीय क्षति है। उन्होंने “गजोधर” चरित्र के माध्यम से एक आम आदमी की समस्याओं को हास्य के माध्यम से प्रस्तुत कियासाथ ही अपनी अवधी भाषा को समृद्ध भी किया। उन्हें अवधी से बहुत प्रेम था। करोड़ों लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट व हंसी लाने वाले राजू श्रीवास्तव सबको रुला कर अपनी आगे की यात्रा पर प्रस्थान कर गए। हां, कलाकार कभी मरता नहीं, उसका लालित्य व कला अमरत्व प्रधान होती है। हास्य कलाकारों के लिए एक सुदृढ़ पृष्ठभूमि निर्मित करने वाले राजू श्रीवास्तव ने 41दिनों तक मृत्यु से अपनी लम्बी लड़ाई लड़ी। संघर्ष से सब संभव वाले सिद्धांत पर आजीवन चलने वाले राजू श्रीवास्तव ने सैकड़ो कलाकारों में विश्वास जगाया कि हास्य कलाकारी में भी असीम संभावनाएं है।

सामाजिक सरोकारों को हास्य रस में पिरो कर प्रस्तुत करने में सिद्धस्त “गजोधर” भैया अपनी सहज़ सरल शैली व वाक्यपटुता से सभी का दिल जीतने वाले कॉमेडी की दुनिया के ध्रुव तारे थे। कहना होगा कि मनोरंजन चैनलों पर हास्य के कार्यक्रम ज्यादातर सस्ते, भौड़े, बेतुके और स्तरहीन होते हैं। राजू श्रीवास्तव जब इस अखाडे में कूदे थे तो उन्होंने ज्यादातर उस निम्न मध्यवर्गीय परिवेश के इर्दगिर्द ही हास्य बुना जिससे निकल कर वह मायानगरी की चकाचौंध का हिस्सा बने। वे ज़मीनी इनसान थे और उनकी प्रस्तुतियों में देसीपन था जो लोगों को खूब पसंद आया। वे सुपरस्टार तो नहीं बन पाए। लेकिन उनका भी एक अच्छाखासा प्रशंसक वर्ग था।

कहते ही हैंमुंबई में सब कुछ मिल जाता है लेकिन ठहरने की जगह मिलना सबसे मुश्किल होता है। जिनके पास जाता तो वह पहला सवाल पूछताकितने दिन के लिए आये होकहां ठहरे होकाम ढूंढने और वहीं टिकने की बात पर वे स्पष्ट कहते कि भइया चाय-वाय पियो और कोई दूसरा घर देखो। राजू श्रीवास्तव ने मुझे कई बार बताया था कि उन्होंने अपने शुरूआती दौर में कई रातें खुले आसमान के नीचे गुजारी थीं। राजू मुझसे उम्र में 12 साल छोटे थे। लेकिन, अद्भुत प्यार भरा सम्बन्ध था हमारा।

राजू श्रीवास्तव अपने आसपास से लेकर देश-दुनिया की गतिविधियों पर बातचीत के दौरान बहुत गंभीरता से रिएक्ट करते थे। वे सुनते अधिक और बोलते कम थे। वे स्टेज पर बोलना पसंद करते थे। वहां के तो वे बादशाह थे। तात्पर्य यह है कि कॉमेडी और व्यंग्य लेखन आपसे गंभीरता की उम्मीद करता है। सफल कॉंमेडियन होने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है। यह कोई बच्चों का खेल नहीं है।

राजू श्रीवास्तव अपने शुरुआती संघर्ष के बारे में बताते थे कि वे तब जिससे भी मिलते तो वह छूटते ही पूछता कि क्या किया हैअगर आपने कोई फिल्म नहीं की है तो कह दिया जाता कि अभी तो कास्टिंग हो गयी है अगली के लिए मिलना। स्टेज शो मिलना भी आसान नहीं होता था। कहते अभी तो जगह नहीं है अगर कोई बीमार पड़ा तो बुलाएंगे।

राजू श्रीवास्तव ने 1982 में कानपुर से मुंबई की ट्रेन पकड़ ली। उनके पास सिर्फ अमिताभ बच्चन के  संवादों को बोलने का महारत था। बिग बी ही उनके हीरो थे। इन चालीस सालों के सफर मेंउन्होंने अपने हिस्से के आसमान को छुआ। उन्होंने 1991 में पहला मकान लिया और 1992 में गाड़ी खरीद ली। तब वे किशोर कुमार और आशा भोंसले के म्युजिकल ग्रुप से जुड़कर देश-विदेश की यात्राएं भी करने लगे थे। कामयाबी कदम चूम रही थी। पैसा भी आने लगा था।

(लेखक  वरिष्ठ संपादकस्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

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