- आर.के. सिन्हा
बिंदेश्वर पाठक जैसी युगांतकारी शख्सियत सदियों में जन्म लेती हैं। स्वाधीनता दिवस के दिन झंडारोहण के बाद उनकी तबीयत बिगड़ी और फिर वे कुछ देर के बाद संसार से विदा हो गए। स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर उन्होंने अपने सुलभ ग्राम में एक कवि सम्मेलन करवाया था। वहां पर तमाम कवियों से मिले और उनकी देश भक्ति से ओत-प्रोत रचनाओं को सुना भी। वे ताउम्र एक्टिव रहे। उम्र बिंदेश्वर पाठक की भले ही अस्सी की हो गई थी, पर वे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. कलाम की ही तरह जीवन के अंतिम क्षण तक सक्रिय रहे। उन्होंने भारत को स्वच्छता का एक नया विचार दिया। वे एक किवदंती पुरुष बन गये थे। व्यक्ति जब एक संस्था का रूप ले ले, तो आप जितना भी उन से सीखेंगे कम ही होगा। अपने गृह जनपद वैशाली, बिहार और भारत का मान बढ़ाने वाले बिंदेश्वर पाठक का निधन सामाजिक क्षेत्र में एक बहुत बड़े रिक्तांक को उत्पन करता है। वे मेरे प्रिय मित्र थे और उनसे अक्सर दिल्ली, पटना और अन्य जगहों में मुलाकातें होती रहती थीं। मैंने और बिन्देश्वर भाई ने सत्तर के दशक की शुरुआत में अपना – अपना काम शुरू किया था । हमारा व्यवसाय अलग ज़रूर था पर निस्वार्थ मित्रता थी जो उन्होंने आजीवन निभाई । मैं जब भी उनसे मिला अपने क्षेत्र के पुराने मित्र होने के नाते बहुत ही उत्सुकता से मिलते थे और पूछते थे कि गांव, क्षेत्र पटना में सब ठीक ठाक है न ? भारत में मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ अभियान चलाने वाले, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक एक असाधारण इंसान थे। ब्राह्मण कुल में पैदा होकर वाल्मिकी समाज के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले और देश को सुलभ शौचालय जैसा अद्भुत सिस्टम देने वाले बिंदेश्वर पाठक सच्चे गांधीवादी थे। गांधी के लिए सफाई और स्वच्छता कार्य भारत के लिये एक महत्वपूर्ण काम था। भारतीय समाज से अस्पृश्यता का धब्बा हटाने की गांधी जी की इच्छा ने बिन्देश्वर जी को शौचालयों और स्वचछता पर काम करने के लिए और वाल्मीकी समाज के उद्धार के लिए प्रेरित किया। उन्हें समाज की यह परंपरा स्वीकार नहीं थी कि कुछ लोग सफाई का काम करें और वे सही काम करने तथा करते रहने के लिए ही समाज में तिरस्कृत और अभिशप्त हों। बिंदेश्वर पाठक बचपन से ही गांधी जी के विचारों से प्रभावित रहने लगे थे। वे गांधी जी को अपना नायक मानते थे। बिंदेश्वर पाठक जी मैला ढोने वाले समाज से जुड़ी ऐसी भयावह कहानियों को सुनाते थे कि रोंगटे खड़े हो जाते थे। उन्होंने वाल्मिकी समाज को गले से लगाया और देश को सुलभ शौचालय जैसा शानदार आइडिया दिया। बेशक, बिंदेश्वर पाठक का जीवन बदलने में गाधी जी के छुआछूत के खिलाफ चलाए गये आंदोलन का गहरा असर रहा। उन्होंने अगर गांधी जी को नहीं पढ़ा होता तो वे शायद सुलभ जैसी संस्था को खोलने के विषय में नहीं सोचते। वे बिहार गांधी स्वच्छता समिति में भी रहे। यह समिति गांधीजी के जन्म के 100वीं वर्षगांठ को मनाने के लिए बनी थी। उस दौरान उन्हें समझ आया कि सिर पर मैला ढोने की प्रथा कितनी अमानवीय है और इसे समाप्त करना कितना जरूरी है। वे मैला ढोने वालों के बीच में रहे। उनके दुख-दर्द को जाना समझा। वे उनके साथ आरा, वैशाली और चंपारण में रहे और उन्हें पढ़ाया भी। गांधी जी जब 1946 में राजधानी दिल्ली की वालिम्की कॉलोनी में रहते थे तो वे वहां पर रहने वालों के बच्चों को पढ़ाते भी थे। उन्हें इस बात की जानकारी थी। इसलिए वे भी गांधी जी की तरह मैला ढोने वालों के गुरु बन गये। बिंदेश्वर पाठक 1968 में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद गांधी शताब्दी समारोह समिति में शामिल हुए थे, जिसने वाल्मिकी समाज को सिर पर मैला ढोने आदि से राहत दिलाने की गारंटी दी। वह इन गरीब दलितों की दुर्दशा देखकर अत्यधिक चिंतित थे। उन्होंने इस समाज को सदियों पुरानी बेड़ियों से मुक्त कराने का संकल्प लिया।
ऐसे में उन्होंने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की, जो देश में सस्ती जगहों पर साफ-सुथरे शौचालय देने की गारंटी देता था।
मुझे याद है कि 1970 में सीमांत गांधी के नाम से सुप्रसिद्ध ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान पटना आये हुए थे और गंगा किनारे गांधी शांति प्रतिष्ठान में ठहरे हुए थे । मैं उन दिनों दैनिक सर्चलाइट और प्रदीप में कार्यालय संवाददाता था । मेरे संपादक जी ने मुझे ख़ान साहब के गतिविधियों पर प्रतिदिन की रिपोर्ट डालने को कहा था । ख़ान साहब ख़ुद बाहर कम ही निकलते थे । कभी जाते भी थे तो मात्र जय प्रकाश नारायण के पास । लेकिन , जब मैं प्रतिदिन उनके पास जाने लगा तो वह भी मेरा इंतज़ार करने लगे और कौन उनसे मिलने आया था और क्या बात हुई , सब स्वयं ही बताने लगे । बिन्देश्वर जी सस्ते शौचालयों की एक प्रदर्शनी लगाना चाहते थे जिसका उद्घाटन ख़ान साहब से करवाना चाहते थे । मेरे प्रयासों से यह संभव हुआ और प्रदर्शनी लगी। यहीं से सुलभ शौचालय संस्थान की शुरुआत हुई जो आज सुलभ इंटरनेशनल के नाम से प्रसिद्ध है ।
कल्पना कीजिये सुलभ शौचालय के बिना ये देश आज कैसा होता? आज रोज 2 करोड़ लोग सुलभ शौचालय इस्तेमाल करते है, जिनमें शामिल है देश के हर स्टेशन, बस अड्डे, बाजार और चौराहे पर स्थित एकलौते सार्वजनिक शौचालय। मैं मानता हूं कि उनके इस काम के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार दिया जाना चाहिए था। पर वे पुरस्कार पाने की दौड़ में कभी नहीं रहे। वे कई बार कहते थे कि अगर वे अपने लक्ष्य से भटके तो फिर सुलभ का काम प्रभावित होगा। उन्हीं की पहल पर महावीर एन्क्लेव में सुलभ इंटरनेशनल शौचालय संग्रहालय स्थापित किया गया। ये स्वच्छता तथा शौचालयों के वैश्विक इतिहास को समर्पित है। टाइम पत्रिका ने एक बार इस पर लिखा लिखा था कि यह संग्रहालय विश्व के सबसे विचित्र संग्रहालयों में से एक है।बिंदेश्वर पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल में हजारों महिलाओं, पुरुषों और युवाओं को रोजगार दिया।
बिंदेश्वर पाठक की संस्था सुलभ ने पूरे देश में कार्यालयों, रेलवे स्टेशनों, जे.जे. क्लस्टरों, सरकारी कार्यालयों आदि में सस्ती, बल्कि नगण्य कीमत पर सुविधा प्रदान करते हुए लाखों शौचालय स्थापित किए। उनके आंदोलन ने काम किया जिससे हजारों महिलाओं को रोजगार मिला। उनके नेतृत्व में सुलभ इंटरनेशनल ने सौर ऊर्जा, पर्यावरण उन्नयन, गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों और सामाजिक सुधार की विभिन्न परियोजनाओं के क्षेत्र में काम किया।
प्रसिद्ध कवि सुरेश नीरव बिंदेश्वर पाठक के साथ थे स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या के मौके पर। नीरव जी ही पाठक जी के सुलभ ग्राम में हुए कवि सम्मेलन का संचालन कर रहे थे। वे फफक-फफक कर रोते हुए बता रहे थे कि “मैं डॉ. पाठक के साथ ही मंच पर बैठकर कवि सम्मेलन का संचालन कर रहा था। जब कार्यक्रम समाप्त हो गया तो उन्होंने माइक पर घोषणा की कि आप सभी लोग सभागार खाली हो गया, वह मेरा हाथ पकड़े बैठे रहे। मुझे क्या पता था कि उनके हाथों का यह स्पर्श मेरे लिए आखिरी होगा।”
बिहार के जाति से ग्रस्त समाज में ब्राहमण परिवार से संबंध रखने वाले डॉ. पाठक वाल्मिकी समाज के नायक बन कर उभरे। वे बताते थे कि जब 1970 में अपनी संस्था सुलभ की स्थापना की तो उनके पास मात्र 400 रुपये थे। पर उनका लक्ष्य साफ था। वे मैला ढोने वालों की जिंदगी को बदलना चाहते थे। उन्होंने यह करके भी दिखा दिया।
डॉ. बिंदेश्वर पाठक का निधन हमारे देश के लिए एक गहरी क्षति है। वह एक दूरदर्शी व्यक्ति थे, जिन्होंने सामाजिक प्रगति और वंचितों को सशक्त बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम किया। बिंदेश्वर जी ने स्वच्छ भारत के निर्माण को अपना मिशन बना लिया था। उन्होंने स्वच्छ भारत मिशन को जबरदस्त समर्थन प्रदान किया। स्वच्छता के प्रति उनका जुनून हमेशा दिखता रहा।
इसी महीने की 4 अगस्त को मुझे सपत्नीक सुलभ ग्राम , महावीर एनक्लेव में एक व्याख्यान के लिये बुलाया था । भव्य स्वागत किया । पहुँचने पर अपने पचासों सहयोगियों के साथ गेट पर ही खड़े थे । व्याख्यान के बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा ,” आर० के० भाई, मन तो भरा नहीं ! एक दिन पूरे दिन भर का आपका कार्यक्रम आयोजित करने की इच्छा है । जल्द ही आपका समय लेकर बुलवाता हूँ।” अब वह दिन नहीं आएगा !
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)