स्वधर्म व स्वराष्ट्र के लिए चार साहिबजादों का बलिदान!

आलेख

– समता कुमार (सुनील)

आज अपना देश जहाँ एक ओर सांस्कृतिक एवं वैचारिक रूप से वैश्विक आक्रमण झेलते हुए संघर्षरत दिखाई पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर अपनी संस्कृति एवं स्वधर्म के रक्षार्थ बलिदान होनेवाले गुरु गोविंद सिंह के चार साहिबजादों की याद हमें स्वधर्म व स्वराष्ट्र की अस्मिता के लिए बलिदान हेतु प्रेरणा प्रदान कर रही हैं।

           21 दिसंबर से 27 दिसंबर तक के एक सप्ताह हमें प्रत्येक वर्ष उनकी याद सदैव दिलाता रहेगा। बर्बर मुगलों के सामने निर्भीक होकर नहीं झुकना न ही धर्म परिवर्तन करना , हमें स्वराष्ट्र व स्वधर्म हेतु बलिदान की प्रेरणा प्रदान करता रहता है।

               चमकौर युद्ध  (दिसम्बर 1704) चल रहा था, जिसमे गुरु गोविंद सिंह के बड़े पुत्र अजीत सिंह के विशेष आग्रह पर युद्धभूमि में गुरु गोविंद सिंह ने अजीत सिंह को स्वयं अपने हाथों से सुसज्जित कर शस्त्र प्रदान करते हुए पाँच सिक्खों के साथ रणभूमि में भेजा, जहाँ पर पहुँचते ही अजीत सिंह ने मुगल सेना को थर-थर काँपने पर मजबूर कर दिया। युद्ध में इनका प्रहार का पराक्रम ऐसा था कि जैसे कोई बुराई पर कहर बरपा रहा हो।

समता कुमार (सुनील)

          इनकी वीरता और साहस को देखते हुए मुगल सेना भागने लगी, लेकिन तभी ऐसा समय भी आ गया जब इनके तीर खत्म होने लगे। इस बात का पता जैसे ही मुगल सेना को लगा तो उन्होने इनको घेरना प्रारंभ कर दिया, लेकिन फिर भी वे निडर होकर अपनी म्यान से तलवार निकाल कर मुगल सैनिकों पर टूट पड़े और उन्हे गाजर-मूली की तरह काटने लगे। ऐसा करते-करते अचानक उनकी तलवार टूट गई, फिर भी बिना हिम्मत हारे अपनी म्यान से ही निरंतर मुकाबला करते हुए मात्र सत्रह वर्ष की अल्पायु में आखिरी श्वास तक लड़ते हुए मातृभूमि की गोद में वीरगति को प्राप्त हुए।

            दूसरे दिन गुरु गोविंद सिंह के द्वितीय पुत्र यानि अजीत सिंह के छोटे भाई जुझार सिंह ने अपने बड़े भाई के बलिदान के पश्चात युद्ध का नेतृत्व संभाला और अपने बड़े भाई की तरह वीरता पूर्वक लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए।

              जबकि दूसरी ओर गुरु गोविंद सिंह की माता गुजरी जी के साथ उनके दोनो छोटे पुत्र जोरावर सिंह व फतेह सिंह अपने पिता से मिलने की आस में राह भटकते हुए अचानक गंगू नामक नौकर से जा मिलते हैं, जो कभी इनके गुरु महल में सेवा का कार्य किया करता था। दोनों साहिबजादों के साथ माता गुजरी, गंगू के इस आश्वासन पर उसके घर चली गई कि वह उन्हे उनके परिवार के साथ मिलायेगा तब तक के लिए हमारे घर पर रहें। लेकिन गंगू के असलियत से वे वाकिफ नहीं थे।

            इधर गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खाँ को गुरु गोविंद सिंह जी की माता एवं उनके दो छोटे साहिबजादों की अपने यहाँ होने की सूचना दे दी और वे लोग तुरंत वजीर खाँ के द्वारा गिरफ्तार कर के कैद में डाल दिए गए, जिसके बदले गंगू को वजीर खाँ ने सोने की मुहरे दी।

                माता गुजरी एवं दोनो छोटे साहिबजादों को प्रताड़ित करने के लिए भयंकर ठिठुरती ठंड में ठंडे बुर्ज में रखा गया। रात भर ठंड से ठिठुरने के बाद सुबह होते ही उन दोनों साहिबजादों को वजीर खाँ के सामने पेश किया गया, जहाँ भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए कहा गया तो उन सिंह सपूतों ने निर्भीक होकर बिना हिचकिचाहट के जोर से जयकारा लगाया — “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल!”

               यह देखकर सभी दंग रह गए..!! वजीर खाँ की मौजूदगी में ऐसा हिमाकत कोई नहीं कर सकता, लेकिन ये दोनो नन्हें सिंह सपूत बिल्कुल ही नहीं डरे। उसके मुलाजिमों ने दोनो साहिबजादों को वजीर खाँ के सामने शीर झुकाने को कहा तो इनका जवाब सुनकर सबने चुप्पी साध ली ! दोनो ने सिर ऊँचा करके जवाब दिया — “हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा (गुरु तेग बहादुर सिंह) की बलिदान को लज्जित नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे? जिन्होंने स्वधर्म के नाम पर अपना शीश कटा देना श्रेयस्कर समझा, लेकिन शीश झुकाना नहीं।”

                       वजीर खाँ ने उन दोनो को काफी डराया, धमकाया और प्यार व लालच भी दिया, लेकिन दोनो सिंह सपूत अपने निर्णय पर अटल रहे। आखिर में निर्मम वजीर खाँ  ने उन दोनो बालकों को सरहिन्द की दीवारों में जिन्दा चुनवाने का ऐलान कर दिया।

            जब दीवार चुनी जाने लगी तो दोनो निर्भीक सिंह सपूतों ने “जपुजी साहिब” का पाठ भक्तिपूर्वक प्रारंभ कर दिया और फिर दीवार पूरी होने तक जयकारा लगाने की आवाज निरंतर आती ही रही।

               वजीर खाँ के कहने पर जब दिवार को कुछ घंटों बाद तोड़ा गया, यह देखने के लिए कि वे जिन्दा है कि नहीं, तब भी उन दोनों सिंह सपूतों के श्वास अभी कुछ शेष थे और उनके होठ आहिस्ता-आहिस्ता “जपुजी साहिब” के पाठ के लिए हिल रहे थे, लेकिन बर्बर मुगल मुलाजिमों के कहर शायद अब भी बाकी थे और उन्होंने ने दोनो साहिबजादों को जबरदस्ती मौत के घाट उतार ही दिये। इस प्रकार वे दोनों सिंह सपूत स्वधर्म एवं स्वराष्ट्र हित बलिदान होकर मातृभूमि की गोद में सदैव के लिए सोकर अमर हो गए ।

     उधर बुर्ज में कैद माता गुजरी ने जब दोनो साहिबजादों की बलिदान की सुचना पाती है तो वह अकाल पुरख को इस गौरवशाली बलिदान के लिए धन्यवाद देकर तत्क्षण अपने प्राण भी त्याग दिए।

                   जब 27 दिसम्बर 1704 को जोरावर सिंह व फतेह सिंह को दीवारों में चुनवा दिया गया और इसका समाचार गुरु गोविंद सिंह जी को जब प्राप्त हुआ तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय पत्र) लिखा, जिनमें उन्होंने औरंगजेब को चेतावनी दी — “तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए अब ‘खालसा पंथ’ तैयार हो चुका है।”

            आज के दौर में खालसा पंथ से भटके कुछ अनुयायी पाकिस्तान के सीमांत प्रांत गुजरात, पंजाब, राजस्थान सहित सम्पूर्ण राष्ट्र में खालिस्तान के नापाक विदेशी षड्यंत्र के शिकार बन कठपुतली बनकर अपने ही स्वधर्म व स्वराष्ट्र पर घातक हमले करने हेतु तैयार हैं। उन्हे गुरु गोविंद सिंह जी के ध्येय-संकल्प व बलिदान के साथ-साथ उनकी माता व साहिबजादों के गौरवपूर्ण बलिदान के उन क्षणों को अपने मन-मस्तिष्क में लाकर पुनः इस राष्ट्र की अस्मिता के लिए अग्रिम पंक्ति में आकर ‘खालसा पंथ’ को पुनः सम्मानित करना चाहिए।

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